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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा १४१ घूमना पड़ा और अन्त में स्थाण्वीश्वर के छोटे राज कुल में आश्रय मिला । जिस दिन नगरहार के मार्ग में दस्युओं ने इस अभागे शरीर का स्पर्श किया, उस दिन तक मुझे देवपुत्र की कन्या होने का अभि- मान था। मैं एक मास तक अपने पिता का नाम ले-लेकर रोती रही। बाद में मुझमें से वह अभिमान चला गया । भगवान की बनाई और लाखों कन्यायों की भाँति में भी एक मनुष्य-कन्या हैं। उन्हीं की भौति सुख-दु:ख का पात्र में भी हैं। उन्हीं की भाँति मेरा जन्में भी अपनी सार्थकता के लिए नहीं है। मेरा अहंकार मर चुका है, अभिमान नष्ट हो गया है, कौलीन्य गर्व विलुप्त हो चुका है । मैं धर्षिता, अपमानिता, कलंकिनी सौ-सौ मानवियों की भाँति सामान्य नारी हूँ । जगत के दुःख प्रवाह में फेन-बुद्बुद के समान मैं भी नष्ट हो जाऊँगी और प्रवाह अपनी मस्तानी चाल से चलता जायगई । माता से मैंने बौद्ध दुःख. वाद का भाव पाया है और पिता से भागवत अनुकम्पा का। मेरे ऊपर महावराह की करुणा है, यही एक मात्र सुख हैं, और इसी करुणा ने मुझे तुम से और भट्ट से मिलाया है। ना निउनिया, रोने से क्या होता है ? मैं आज भी अपनी रुलाई रोक नहीं सकती ; परन्तु तु उसे सामयिक ग्रावेग समझ । मैं सब-कुछ भूल जाने की साधना कर रही हूँ। पिता से क्या फिर मिलना होगा ? महावराह ही जानें हम क्यों चिन्ता करें ? मैं अधिक नहीं सुन सका। उत्तेजित होकर बोला-कौन कहता है देवि, कि श्राप कलंकिनी सामान्य नारी हैं ? पार्वती के समान निर्मले अन्तःकरण, गंगा के समान पूतकारी विचार-धारा, कैलास के समान शुभ्र चरित्र और मानसरोवर के समान सकरुण हृदय ने जिस देवी को अशेष लोक की पूजनीय बनाया है, उसे कलंकिनी समझने वाला नरक-भागी होगा। देवि, पावक को कभी कलंक स्पर्श नहीं करता, दीप-शिखा को अन्धकार की कालिमा नहीं लगती,