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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बणि भट्ट की अस्मि-कथा हो उठे। धीर-प्रसन्न भाव से बोलीं-कौन कहता है भट्ट, कि तुम कवि नहीं हो ? श्लोक बनाना ही तो कविता नहीं है । निरन्तर पवित्र चिन्तन के कारण तुम्हारा वित्त विगत कल्मष हो गया है । तुम्हारे चारित्र्यपून हृदय में सरस्वती का निवास है। तुम्हारे अधरों से विमल- धारा की भाँति वाणी का स्रोत झरता रहता है। कौन कहता है कि नुम कवि नहीं हो ? जिस दिन तुम्हारी शक्तिशालिनी वाक्-स्रोतस्विनी से इस धरा का कल्मष धुल जायगा, उस दिन लोगों को सचमुच शान्ति मिलेगी । भ, कविता श्लोक को नहीं कहते । हमारे यवन-साहित्य में गद्य को काव्य की 'निकषा' कहा है। छन्द और अलंकार तो कविता के प्राग नहीं हैं। प्राण है रस, विशुद्ध सात्विक रस । तुम सच्चे कवि हो । मेरी बात गाँठ बाँध लो, तुम इस आर्यावर्त के द्वितीय कालिदास हो ।' इतना कह लेने के बाद भट्टिनी ने अचानक अपने को रोक लिया, मानो जितना कहना चाहिए, उससे अधिक कह गई हो; मानो जहाँ रुक जाना उचित था, उससे बहुत दूर आगे बढ़ गई हों । फिर उनका मुख कुछ लाल भी हो गया। बड़े-बड़े खंजन-शावक-से चपल नयन झुक गए और अधरोष्ठों का मन्द स्मित जल्दी-जल्दी भीतर भाग जाने की चेष्टा करने लगा। लेकिन भट्टिनी का अानन्द छिपाया नहीं जा सका। रह रह कर कपोल-पालि विकसित हो उठती थी और नयन- कोरक विस्फारित हो उठते थे। भट्टिनी का मुख आनन्द, ब्रीड़ा और मन्द स्मित से मनोहर हो उठा ।। मैं मुहूर्त-भर तक शिथिल भाव से सोचता रहा । भट्टिनी कह रही हैं, मैं आर्यावर्स का द्वितीय कालिदास हूँ। कालिदास आर्यावर्स के गौरव थे। मुझे एक बार याद आया मालिनी-तट का वह आश्रम, जिसके पत्ते हूत होम-धूम से मलिन हो गए हैं, जहाँ सैकत पुलिन में हंस मिथुन-लीन हो रहे हैं, जलाशय के मार्ग मुनियों के वल्कल-क्षरित जल- धारा की पंक्ति से सिक्त हैं, जहां के शान्त-विश्वस्त मृगयूथ ज्यानिर्घोष से