बाण भट्ट की अाम-कथा एकदम श्रपरिचित हैं, जहाँ लोल अपांग का दर्शन किसी ने नहीं किया, जहाँ सरल ऋषि कन्याएँ कृतक पुत्रों की गृहस्थी का रस ले रही हैं। इस शन्ति वातावरण में याद आई वह सौन्दर्य की भूति, सुकु- मारता की खन, शवलानुर्विद्ध कमलिनी के समान वल्कल-विहित शकुन्तला । फिर याद अाई नवोदित वसन्त-श्री, नागाधिराज हिमालय की शोभा सम्पत्ति और शिव का ध्यान । उस दिन कैलास की देवदारु- द्रुम-वेदिका पर निवात-निष्कम्प प्रदीप की भाँति स्थिर भाव से असीन महादेव के सामने अपने ही यौवन-भार से दबी हुई, वसन्त-पुष्यों की भरण-धारिणी पार्वती जब पुष्प-स्तवक के भार से झुकी हुई संचा- रिश पल्लविनी लता की भाँति उपस्थित हुई थीं और अपने नील अलकों में शोभमान कर्णिकार तथा कानों में विराजमान नव-किसलय- दल को असावधानी से विस्वस्त करती हुई उस तपस्वी के पाद-प्रान्त में झुकी थीं, तो योगी क्षण-भर के लिए चंचल हो उटा था। उसने बरबस अपने नयनों को पार्वती के सुन्दर मुख की शोर व्यापारित किया था; क्षण-भर के लिए उसे सारी ससार मधुमय दिख गया था- अशोक कन्धे पर से फूट पड़ा था, वकुल कंट्रकित हो गया था । न उसने सुन्दरियों के असिंजित नूपूरों की प्रतीक्षा की थी, न गरडूत्र- सेक को ! किन्तु एक ही क्षण में योगी सम्हल गया। उसे अपदेवता का अनधिकार हस्तक्षेप–कुसुम-वाण-संधान-उचित नहीं जान पड़ा। जब तक अाकाश में मरुद्गण उससे क्रोध शमन करने की पुकार करते रहे, तब तक कामदेव कपोत-कर्बर भस्म में परिणत हो गया । किशोरी पार्वती का कोमल हृदय अपने सौन्दर्य के इस बाँझपन को देख कर झझला उठा और उन्होंने तपस्या से इस रूप की वन्ध्यता को दूर करना चाहा । प्रथम दर्शन के प्रेम पर, बाह्य रूप के श्रीकर्षण पर क्षण-भर में वज्रपात कराकर, समस्त हिमालय के सौन्दर्य को इस प्रकार असफल बना कर कालिदास त्याग और तपस्या का आयोजन