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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा की ओर देखने लगीं । निपुणिका का चेहरा उतर गया था। जान पड़ता था, किसी अज्ञात शंका से वह भयभीत हो उठी थी । निदाघान्त में ग्लपित आरग्वध-कुसुम के समान उसका पीला मुख मुरझा गया था। उसकी आँखों के नीचे को नीली रेखा और भी नीली हो गई थी। मैंने भयपूर्वक पुकारा–'निउनिया, तुझे क्या हो गया है १ निउनिया कुछ बोली नहीं । भट्टिनी के आग्रह पर भी बह चुप ही रही और धीरे-धीरे उठ कर भीतर चली गई। भष्टिनी ने उसका अनुगमन किया । मैं नाव की छत पर चला आया। गंगा का स्वच्छ सैकत-पुलिन चाँदनी में चमक रहा था और उसके बीचोबीच गंगा की धारा दूर तक फैली हुई रजत चुणं से समावृत्त-पारद प्रवाह की भाँति दिखाई दे रही थी । दिगन्त के एक छोर से एक क्षीण नीली रेखा के रूप में इस धारा का आविर्भाव हुआ था और दूसरे दिगन्त के छोर में उसी प्रकार एक पतली नीली रेखा के रूप में वह विलुप्त हो गई थी। बीच में उसकी चटुल लहरें एक-पर- एक सोपान-श्रेणी की भाँति सजी हुई थीं और चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब बार-बार उनसे टकराकर खण्ड-खण्ड हो जाता था। सब-कुछ शान्त, स्निग्ध और मनोरम था। आकाश में ताराओं की सभा में चन्द्रमा राजा की भाँति विराजमान था और गंगा की धारा में निपुण मल्ल की भाँति विविध व्यायाम का अभ्यास कर रहा था। मेरे सामने इस निःशब्द प्रकृति के अन्तराल में एक कोलाहलपूर्ण युद्ध चल रहा था। भदिनी की पालकी चली जा रही है। सब-कुछ शान्त, गम्भीर और गुरुता लिए हुए है। अचानक प्रत्यन्त-दस्युओं का दल उस पर टूट पड़ता है। दो सौ विश्वस्त सैनिक एक-एक करके मर रहे हैं । उनके अम-बिन्दु से सुसज्जित भालपट्ट पर कभी न झुकने वाला निश्चय है। उनके हाथ में नंगी तलवारें हैं, कन्धों पर तीक्ष्ण फलक कुन्त है, हृदय में मर-मिटने की साध है और मन में भदिनी को न बचा सकने का