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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाणे भट्ट की आत्मकथा पश्चाताप है। उनकी शिरा से रक्त की धारा छूट रही है । मांस खण्ड लटककर टूट रहे हैं ; परन्तु वे चट्टान की भाँति अपने स्थान पर दृढ़ हैं। धीर नापित निराशा-भरे स्वर में बेटी को निर्भय रहने की पुकार कर रहा है। उसका गला सँधा है, मस्तिष्क बेचैन है, हाथ शत्रुओं से उलझे हुए हैं और वाणी कातर है; पर उसमें भट्टिनी को बचा लेने की अदमनीय आशा है । और भट्टिनी की कमल के समान प्रफुल्ल मुख भय से काला हो गया है, आँखें विकट दृश्य से पथरा गई हैं. अति-संवेदन भोथा हो गया है-वे बेहोश होकर गिर पद्धती हैं। मेरे रक्त का प्रत्येक कण झनझना उठा । मैंने अनुभव किया कि शिराओं में सर्वत्र कुछ कर-गुज़ारने की उमंग है ; पर करना क्या है ? संसार में यह विकट घृणित दृश्य पहली बार नहीं दिखाई दिया है, यहीं इसकी समाप्ति भी नहीं है । बाण-भट्ट जितना भी चिन्तित और उतेजित क्यों न हो, यह घिनौना दृश्य संसार में बार-बार दिखाई देगा। महापुरुषों ने करुणा और मैत्री के अनेक उपदेश दिए हैं, भ्रातृ-भाव और जीव-दया के बहुत ग्रन्थ लिखे हैं ; पर उन्हें सफलता नहीं मिली है। मैं निराशा से कातर हो उठा हूँ। क्या यह कभी बन्द नहीं होगा ? क्या संसार की सब से बहुमूल्य वस्तु इसी प्रकार अप- मानित होती रहेगी ? मेरा मन कहता था कि जब तक राज्य रहेंगे, सैन्य-संगठन रहेंगे, पौरुष-दर्प का प्राचुर्य रहेगा, तब तक यह होता ही रहेगा । परन्तु क्या कभी यह भी सम्भव है कि मानव-समाज में राज्य न हों, सैन्य-संगठन न हों, सम्पत्ति-मोह न हो ? मैं कोई उत्तर खोज नहीं पा रहा था। इसी समय मैंने पीछे फिर कर देखा, निपुणिका खड़ी है। उस समय वह प्रकृतिस्थ हो गई थी । हँसती हुई बोली- एक बात बताऊँ, भट्ट ! मैं भाग जाने के चौथे दिन तुम से उजयिनी में ही मिली थी । मैं इस बिना भूमिका के प्रसंग का कुछ तात्पर्य नहीं समझ सका;