पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/१६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१५०
बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा छाड़ कर भाग गए। उस समय तुम्हारा प्रकरण अभिनीत हो चुका होगा; क्योंकि मेरे गिरने के कुछ क्षण बाद ही नगरी की प्रधान गणिका मदनश्री की गाड़ी वही लगी । उल्का के प्रकाश में एक दासी ने मुझे देखा और आश्चर्य तथा भय से चिल्ला उठी। मदनश्री ने गाड़ी से उतर कर मुझे उठाया । मैं उस समय संज्ञाहीन तो नहीं थी; पर मेरी शिराएँ हतचेष्ट हो गई थीं। मैं लज़ा और भय से जड़ीभूत बनी वहीं पड़ी रही । मदनश्री ने मेरा वेश देखकर मुझे पहचान लिया। आश्चर्य और कुतूहल से वह हैरान-सी रह गई । अस्फुट स्वर में बोली---‘यह तो बाण भट्ट की नर्तकी है ! फिर उसने बड़े प्यार से मेरे सिर पर हाथ रखा और हेला के साथ बोली-“कहाँ चली हो, इला | इसी वेश में अभिसार को निकल पड़ी १ वह कौन सौभाग्य- शाली प्रेमी है, जिसके लिए इस गहन अन्धकार में तुम चल पड़ीं १ निष्ठुर है वह सखी, निष्ठुर है ! मैंने मदनश्री को पहचाना । हँसकर बोली- 'मेरा प्रिय यम है, इला ! मदनश्री ने मेरे कपोल पर हल्का- स आघात किया--छिः सरले, ऐसा भी बोलते हैं ! उठी तो । मैं उठी और मेरे वस्त्रों में उलझी हुई एक पटोलिका गिर पड़ी । उसमें की सामग्री रास्ते पर बिखर गई ? भागते समय चोर उसे फेंक गए होंगे । पटोलिका में अलार्कक (महावर), मनःशिला, हरिताल, हिंगुल और राजावतका चूर्ण रखा हुआ था | स्पष्ट ही वह मदनश्री के चित्र- कर्म की सामग्री थी। मुझे बाद में चलकर पता चला कि मदनश्री बहुत अच्छा चित्रकर्म जानती थी । महाकाल के मन्दिर में जो हर- पार्वती की मनुष्य-प्रमाण प्रतिकृति तुमने देखी थी, वह उसी मनः- शिला और राजावर्त के चूण के मिश्रण का अद्भुत प्रयोग मालूम था। न जाने सिक्थक (मोम)-ऐसी वस्तु वह उनमें मिला देती थी कि मनःशिला का रंग एक विचित्र प्रकार से चमक उठता था। तो उस पटोलिका को देखकर गणिका के आश्चर्य ठिकाना नहीं रहा। मुझे