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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्म-कथा १५१ डरी हुई देखकर उसने पहले अनुमान किया था कि उसके रथ को देखकर ही मैं डर गई थी। बाद में जब मैंने चोरों की बात बताई, तो उसने शंकित भाव से सेंध की ओर देखा । पटोलिका के अतिरिक्त उसके शृगाराधान की पेटिका भी बाहर पड़ी हुई थी। एक बार तो वह कातर भाव से चिल्ला उठी कि “हला, मैं लुट गई ! पर ध्यान से देखने पर मालूम हुआ कि पेटिका में कुछ गया नहीं है। उसने कृतज्ञतापूर्वक मुझे गले लगा लिया । बोली--सखि, तुम न आई होतीं, तो मेरा सर्वस्व लुट जाता ।' फिर ज़रा रुककर बोली-‘सखि, तुम लोग तो बाण भट्ट की कुल-वधू हो, क्या यहाँ एक रात नहीं है के सकती ?' मैं क्या कहूँ भट्ट, जिस समय उसने तुम्हारा नाम इस ढंग से लिया, उस समय मेरा मुह क्रोध और अमर्ष से लाल हो गया। उसके इस कथन का तात्पर्य तुम नहीं समझ सकोगे । वह कलुष मानस का कलुषतर अभियोग था। मुझे अपने ऊपर भी बड़ा क्रोध आया, क्योंकि वह बराकी मुझे तब भी अभिसारिका समझ रहीं थी और मुझे चिढ़ाने के लिए ही उसने ऐसा वाक्य कहा था। मैंने शान्ति के साथ ही कहा--'सखि, मेरी-जैसी अभागिनों को देख कर बाण भट्ट को छोटा न समझो । मैं अब वह नहीं जाऊँगी । गणिका अवाक् होकर मेरे मह की ओर देखने लगी। फिर मेरा हाथ पकड़ कर बोली-चलो, भीतर चले। मैं मदनश्री के साथ उसके विशाल महल में घुस गई। जिसे एक क्षण पहले बाण भट्ट की कुल-वधू' कहा गया था, उसे गणिका के घर में प्रवेश करने के पहले मर जाना चाहिए था। भट्ट, मैंने तुम्हारे पवित्र नाम को कलंकित किया है, मैं अपराधिनी हूँ ! इतना कह कर निपुणिका ने घुटने टेक कर मुझे प्रणाम किया । मैं धड़फड़ा कर उठ खड़ा हुआ । निपुर्णिका की इन समस्त बातों का रहस्य मैं बिल्कुल नहीं समझ सका था । उसने शान्त भाव से कहा-