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बाण भट्ट की आत्म-कथा

‘बैठो भट्ट, थोड़ा और बैठो । मैं बैठ गया । निपुणिका का चेहरा खिल गया। एक क्षण में ही मेघयुक्त चन्द्र-मण्डल की भाँति, शैवाल- मुक्त कमल-पुष्प की भाँति, काई हटाई हुई पुष्करिणी की भाँति और कुज्झटिका-विरहित दिमण्डल की भाँति वह प्रसन्न और निर्मल हो गई, मानो उसके हृदय का कोई विशाल शल्य निकल गया हो, चिच में धंसी नुकीली कील बाहर निकल श्राई हो । वह फिर बोली-“मदन श्री का प्रसाद बहुत विशाल था। उसके द्वार पर नाना भाँति की कुसुम-मालिकाएँ मनोहर ईंग से सजी थीं। भिन्न-भिन्न प्रकोष्ठों में शुक-सारिका, लाव-तित्तिर, हंस-कारण्डव, मयूर-सारस के निवास थे । घोड़ों और मेषों के लिए अलग प्रकोष्ठ थे और नागर जनों के विश्राम और गान-नृत्य सुनने के अलग-अलग प्रकोष्ठ नियत थे । उसके प्रमोद-वन की स्थ’ डिल-पोठिकाअों पर नगरी के बड़े-बड़े श्रष्ठि-कुमार कुसुमास्तरण ( फूल बिछाना ) किया करते थे । उसकी क्रीड़ा-वापी के हंसों और चक्रवाकों को मृणाल भक्षण कराना नगर के लोग सौभाग्य का कार्य मानते थे । मदनश्री ने बड़े उद्धत गर्व के साथ तुम्हारे विषय में कुवाच्य कहे थे भट्ट, पर उस बेचारी का दोष नहीं था । उसने पुरुष देखा ही नहीं था। उस बन्धुलों, विटों, लम्पटों और स्त्रैणों की रंगभूमि में मनुष्य का कहीं पता न था। उसने गर्वपूर्वक जब कहा था कि 'तेरे बाण भट्ट-जैसे सैकड़ों यहाँ तलवे चाटने आया करते हैं, सखी, तो मुझे उस पर क्रोध नहीं हुआ था। मैंने केवल उपेक्षा की हँसी हँस दी थी। दूसरे दिन जब वह चीनांशुक में सज कर, गले में रत्नावली पहन कर, लोध्ररेणु से कपोल-संस्कार कर और अलकक पैरों को कुसुम-स्तवक वाले उपानहों से सजित कर तुमसे मिलने गई थी, तो मैं क्षण-भर के लिए चिन्तित हो गई थी ! इतना कहने के बाद निपुणिका कुछ लजा-सी गई । फिर सँभलकर बोली---‘तुम्हें स्मरण है न भट्ट, दूसरे दिन बह तुमसे मिलने गई थी १ .