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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा १५३ मैं उस घटना को भूल गया था । अाज निपुणिका के स्मरण कराने पर उज्जयिनी की मदनश्री का रूप स्मृति-पट पर एकाएक ग्रा उपस्थित हुअा। उस दिन निपुणिका के न मिलने के कारण मैं बहुत चिन्तित था । उसी समय मेरे एक भृत्य ने समाचार दिया कि नगरी की प्रधान गणिका मदनी कल के अभिनय की सफलता पर बधाई देने के लिए पधारी है । मैंने उसका स्वागत किया था। उस में कुल- कन्या का-सा शील था और कवि की-सी प्रतिभा । उसने अलक्त के भी धारण किया था, यह मुझे खूब याद है ; क्योंकि जब उसने कुट्टिम-भूमि पर पैर रखा, तो मैंने अाश्चर्य के साथ देखा कि उस पर प्रवाल-मणि की रस धारा-सी यह गई : ऐसा जान पड़ा, मानो लाल- लाल लावण्य-स्रोत से सारा कुट्टिम लावित हो गया है। उसके चीनांशुक के किनारों पर एक हल्की लाली लहर-सी डोल रही थी। नपुरों की क्वणनध्वनि में उस तरंगहयित अलकाभा को शोभमय बना दिया था। मैंने रत्नावली माला को शायद लक्ष्य ही नहीं किया ; पर उसके अंशुकान्त ( अचल ) के बाहर निकले हुए बाहु-भुगल को देखकर मृणाल-नाल का भ्रम हुआ था। उसकी पतलो, छरहरी अंगु- लियों की नख-प्रभा से वे बलथित जान पड़ते थे । मदनश्री नगर की प्रधान गणिका होने के ही योग्य थी। उसके प्रवाल के समान लाल- लाल अधर-युगल अनुराग-सागर की तरंगों के समान मोहन दिखाई दे रहे थे । उसके गंडस्थल की रक्तावदात कान्ति देखकर मदिरा-रस से पूर्ण माणिक्य-शुक्ति के सम्पुट की याद आ जाती थी। उसकी बड़ी-बड़ी काली अखि शतदन-चिबद्ध भ्रमर की भाँति मनोहर थीं । भ्र-तताएँ मदमत्त यौवन गजराज की मदराजि की भौति तरंगायत होती दिख रही थीं और ललाट-पट्ट पर मनःशिला का लाल बिन्दु अनुराग-प्रदीप की भाँति जल रहा था। उसने लोभ्ररेणु से अंसस्थलों का संस्कार अवश्य किया होगा, क्योंकि माणिक्य कुण्डलों में उसके