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बाण भट्ट की आत्म-कथा

१५४ बाण भट्ट की श्रात्म-कथा उड़े हुए चूर्ण लगे हुए थे और ऐसा जान पड़ता था कि कर्णोत्पल से क्षरित मधुधारा में पद्म-किंजल्क-चूर्ण बहे जा रहे हों। ललाट-मणि की लाल किरणों से धुले हुए उसके मेचक केशपाश संध्याकालीन मेघा- डम्बर की भाँति दर्शक को बरबस श्रीकृष्ट कर रहे थे और ऐसी जान पड़ता था कि एक अद्भुत मदद्धारा लोचन-जगत् को विह्वल कर रही है। उसकी हंसी में बालिका की -सी सरलता प्रकट हुई थी और क्षण- भर के लिए मेरा उद्विग्न चित्त भी उस शोभा की मनोहारिणी पद्मराग- पुत्तलिका को देखकर विश्राम पाने लगा था । उससे थोड़ी देर तक ही बातचीत हुई थी। मैं घूम-फिर कर खोई हुई निपुणिका की बात पर आ जाता था ; पर वह कला और शिल्प की बात करना चाहती थी । वह उठ कर जब चली गई, तो मैं भूल ही गया कि कोई आया था। विद्युत की झणस्थायी प्रभा की भाँति वह एक भूल जाने-योग्य झलक छोड़ गई थी। मुझे ऐसा लगा था कि वह मेरे वैदग्ध्य का अदर नहीं कर सकी, और मैंने उसकी परवा भी नहीं की, क्योंकि मैं उस दिन अपनी विदग्धता का श्राद्ध करने जा रहा था । | निपुणिका ने कहा--‘भट्ट, वह लौटकर आई, तो उसका चेहरा उतर गया था । उसने जीवन में पहली बार ऐसा पुरुष देखा था, जो स्त्री का सम्मान तो करता है ; पर तलवा नहीं चाटता । उसने सूखी हँसी के साथ कहा-‘बाण भट्ट आदमी नहीं है, इला ! मैंने गर्वपूर्वक उत्तर दिया- 'बह देवता है, सखी ! भट्ट, मैंने तुम्हारा नाम कलंकित किया. था ; पर तुमने मेरा मान रख लिया। मैं उसके सामने गर्व से सिर ऊँचा करके चलने लगी। मैंने उस अभागी रात के समस्त क्षोभ को धो दिया । मैं उसी दिन से अपने को हाड़-मांस की गठरी से अधिक समझने लगी । तुमने मुझे मुक्ति दी है, भट्ट | मैं आश्चर्य के साथ निपुणिका की बात सुन रहा था। अब मेरे लिए धैर्य रखना असम्भव हो गया । बोला-'मैं देवता हैं, यह जानने