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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण' भट्ट की आत्मकथा १५५ की इस समय मुझे क्या आवश्यकता है, निउनिया ! असली बात बता न । इतनी बड़ी कहानी का आज क्या प्रयोजन है ? नियुणिका ने आहत भाव से कहा-“तुम्हारे लिए कोई मूल्य नहीं है इस कहानी का ; पर मेरा तो यही सर्वस्व है। गले तक पाप-पंक में डूबी हुई निउनिया के पास और धन है ही क्या, भट्ट १' मैंने स्नेह के साथ कहा-‘ना निउनिया, मूल्य तो मेरे लिए पर्याप्त है। तेरे सारे जीवन की कहानी मैं सुनना चाहता हूँ। तूने मुझ में जो-कुछ देखा है, वह मैं स्वयं न देख सका हूँ और न समझ पाया हूँ। मूल्य क्यों नहीं है, पर प्रयोजन तो बता ! पर निपुणिको का सब-कुछ कह जाना चाहती थी । उसे रोकना ठीक नहीं था, क्योंकि ऐसा करने से उसके दुःखी चित्त को ठेस लगती ! एक बार उसको ठेस लगाकर मैं जिस प्रकार चिन्तित और उद्विग्न हो गया था, उसकी पुनरावृत्ति अब असम्भव थी। वह कहने लगी और मैं सावधान होकर सुनता रहा । निपुण का जरा संभल कर मुस्कराती हुई बोली-“तुम विश्वास नहीं कर सकोगे, भट्ट, मदनश्री बुरी तरह पराजित हुई थी । इतना कहने के बाद निपुगि का की अाँखें झुक गई और वह रुक-रुक कर हँसती हुई बोली--**बताऊँ, भट्ट १ एक दिन मदनश्री के प्रमोदवन में मैं घूम रही थी । प्रमोदवन के पूर्वी सिरे पर अशोक और वकुल वृक्षों के बीच माधवी-लता का मण्डप था । उसके चारों ओर कुरवक का बेड़ा दिया हुआ था। उसी एकान्त कुंज में मैंने आश्चर्य के साथ देखा कि उज्जयिनी की प्रधान गणिका एकाग्रचित्त से चित्र बना रही है। अनाड़ी भी समझ सकता था, उसका 'हृदय गम्भीर अनुराग से उत्क्षिप्त था, दुकूल विस्वस्त भाव से एक ओर पड़ा हुआ था, कंचुकबन्ध शिथिल हो गए थे, नयन-पक्ष्म स्थिर और चिन्ता- मम थे, अँगुलियाँ सफ़ाई से घूम रही थीं और प्रवाल-मणि के समान लाल ओठों पर मनःशिला और लाजावते के रंग लगे हुए थे। उस