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बाण भट्ट की आत्म-कथा

१५६ बाण भट्ट की आत्म-कथा समय वनस्थली शान्त थी, वृक्षों पर पक्षि-विराव एकदम नहीं था, लेताअों के किसलय तक मानो सम्भ्रम के कारण स्तब्ध थे। मैं दबे- पाँव उसके पीछे जाकर खड़ी हो गई और साँस रोक कर उसका कला- नैपुण्य देखने लगी। उसने चित्र का प्रायः समस्त अंग नील प्रावरण से ढंक रखा था । केवल पैरों की अँगुलियाँ बाक़ी थीं। वह बड़े यत्न से उस पर रंग चढ़ा रही थी। चित्र समाप्त होने के बाद उसने बड़ी सुकुमार भंगी से नील ग्रोवरण को हटाया । मैं अाश्चर्य से स्तब्ध रह गई । भट्ट, वह तुम्हारा ही चित्र था !) । | मैंने हँस कर कहा---'नि उनिया, चण्डी-मण्डप के पुजारी के बाद उपहास करने योग्य व्यक्ति तुझे नहीं मिला था, अब मैं मिल गया हूँ ! सिर ऊपर उठाया। वह हँस रही थी। उसकी अखि बार-बार नीचे झुक जाती थीं और वह बार-बार ऊपर उठाना चाहती थी । हँसी की शुचिता उन्हें ऊपर ले जाती थी और सरसता नीचे झुका देती थी । ज़रा कनखियों से स्थिर भाव से देखती हुई बोली-लेकिन वास्तविक बात तो अभी मैंने बताई ही नहीं ।' वह अब की बार अखें झका कर देर तक हँसता रहीं। फिर सम्हल कर बोलीं-‘भट्ट, उसकी हथेलियों में पसीना आ गया था और चित्र पर एक-आध बूंद असू भी गिरे थे !' यह बनाई हुई बात थी । निपुणिका की अाँखे ही इसका प्रमाण थीं। मैंने कहा-“सात्विक भाव के स्वेद बिन्दु १० अब निपु- णिको ज़ोर से हँस पड़ी । उसकी अाँखें ऊपर नहीं उठीं और अचल मह पर चला गया। थोड़ी देर के बाद निपुणिका ने कहा- मैंने पीछे से सीत्कार किया। राशिका मुझे देख कर लजा गई । उसका लजित मुत्र बहुत सुन्दर था, भट्ट ! तुम देखते, तो कविता लिख देते । मैंने हँस कर पूछा-'किस बड़भागी का चित्र बना रही है, इला । लज्जा और अनुराग गणिका को मूक नहीं बनाते, और भी प्रगल्भ बना चैते हैं । हँसती हुई बोली-'तेरे देवता का ! और चित्र-फलक मुझे