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बाण भट्ट की आत्म-कथा

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अण भट्ट की प्रारम-कय। मेरे जीवन के वो दिन सजई और संकोच में ही निकल गए, जब काम करने की ताक़त थी। अब वृद्धावस्था में न तो उतना उत्साह रह गया है और न शक्ति ही । तु बड़ा आलसी है। बाद में पछतायेगा। पुरुष होकर इतना अन्न सी होना ठीक नहीं। तू समझता है, यूरोप की स्त्रियाँ सब-कुछ कर सकती हैं ? गलत बात है। हम भी पराधीन है। समाज की पराधीनता जरूर कम है; पर प्रकृति की पराधीनता तो हटाई नहीं जा सकती। आज देखता हूँ कि जीवन के ६८ वर्ष व्यर्थ ही बीत गए !!


 मैने देखा, दीदी को आँखे गीली हो गई हैं और उनका पोपली मुख कुछ कहने के लिए व्याकुल है; पर बात निकल नहीं रही है। जैसे शब्द ही न मिल रहे हों । न-जाने किस अतीत में उनका चित्त धीरे-धीरे डूब गया और मैं चुप बैठा रहा । उस दिन भी दीदी को चाय पीना नही हुआ । जब दीदी का ध्यान भंग हुआ, तो उनकी आँखो मे पानी की धारा झर रही थी और वे उसे पोछने का प्रयत्न भी नही कर रही थी।
मैने अनुभव किया कि दीदी किसी बीती हुई घटेन करे तानाबाना सुलझा रही हैं। उधर से ध्यान हटाने के लिए मैने प्रश्न किया-'दीदी, आजकल शोण में नावें चलती है ? दीदी ने मुस्करा दिया। उसका भाव था कि मै समझ गई, तू मेरा ध्यान दूसरी ओर ले जाना चाहता है। फिर बोली- 'देख, मै यहाँ ज़्यादा नही ठहर सकती । इस अनुवाद को तू ज़रा ध्यान से पढ़ और कल कलकत्ते जाकर टाइप करा ला । दो-एक चित्र भी पुस्तक में देने होंगे । आ, जल्दी कर ।' 
कागज़ों का पुलिदा लेकर मैं धर अाया। यद्यपि मेरी आँखें कमजोर है और रात को काम करना मेरे लिए कठिन है; फिर भी दीदी के कागज़ों को मैंने पढ़ना शुरू किया । शीर्षक के स्थान पर मोटे-मोटे