पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/१७१

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नवमें उच्छ्वास त्रिवेणी पार करने के बाद हमारी नौकाएँ गुणकर्ष के बिना ही तीव्र गति से चलने लगीं। इसके पहले मल्लाहों को कई स्थानों पर नौका को खींचना या ठेलना पड़ा था; पर प्रयोग के बाद पानी की कभी नहीं रही । सब से बड़ी बात जो अब मेरे अावारे चित्त को चंचले करने लगी, वह यह थी कि गंगा अब प्रायः ही छोटी-मोटी पहाड़ियों के पाश्व को दरेरती हुई चलने लगी थी । विन्ध्याटवी को अकर्षण : मैं अपने जीवन में कभी नहीं काट सका हूँ। पूर्व-समुद्र से अपर-समुद्र तक विस्तीर्ण, पृथ्वी की मनोहर मेखला के समान, मध्य-देश की अर्ल- कार-स्वरूप यह परम रमणीय विन्ध्याटवी बाल्यकाल से ही मेरे चित्त- रूपी चपले अश्व का खलीन ( लगाम ; रही है, वैराग्य-रूप द्विरद ( हाथी ) का अंकुश रही है और भ्रमणोन्माद-रूप मानस-द्वन्द्व का कवच रही है। मैं घूम-फिर कर इसके पास लौट आया हूँ । मैं उन वृक्षों की माया नहीं काट सका, जो जंगली हाथियों के मदजल से सिक्त होकर बढ़े हैं, जिनके मस्तक पर के श्वेत कुसुम बहुत ऊँचे पर स्थित होने के कारण उलझे हुए नक्षत्रों के समान शोभित होते हैं, जिनकी धनी छाया एक ही साथ शान्ति और संभ्रम को उत्पन्न कर देती है । शैशव काल में मैंने इस विशाल विन्ध्यावी के एक अंश- मात्र का स्वाद पाया था, आज देश-विदेश घूमने के बाद मैंने इसके प्रत्येक भाग का रस निपुणं भाव से उपलब्ध किया है। इसमें कहीं मदमस कुरर पक्षी अपने चंचुअों से मरीच-पल्लव कुतरते देखे जाते हैं; कहीं गज-शावकों के शुण्ड-कण्डूयन से तमाल-वृक्ष के किस- लय टूट-टूट कर वनभूमि को अमोद-मग्न कर देते हैं; कहीं मधुपान से