पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/१७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१६२
बाण भट्ट की आत्म-कथा

१६३ बाण भट्ट की आत्म-कथा सा हुअ । बोला-क्या कहना है, भद्र ! अवहित हूँ, बोलो ।' युवक ने नम्रतापूर्वक कहा-यह चरणाद्रि-दुर्ग है । कान्यकुब्जेश्वर को यहाँ इस समय तक का पूर्वी दुर्ग है। इसके बाद के देशों में इस समय अराजकता है। उत्तर का काशी श्रौर दक्षिण का करूष जनपद इस समय न तो मगध के गुप्तों के हाथ में हैं और न अपने महाराजा- धिरज के ज्येष्ठ ने यहाँ बड़ी कुशलता की नीति वर्ती थी। उन्होंने उत्तरी तट के कुछ ब्राह्मणों को भूमि का अग्रहार देकर अपने पक्ष में कर लिया है। ये भूमि अग्रहारभोजी ब्राह्मण समस्त जनपद में प्रधान हो उठे हैं। वे ही इधर के सामन्त हैं। उनमें वैदिक क्रिया लोप होती जाती है। अब वे खुलकर बौद्ध राजा का समर्थन करने लगे हैं । पर दक्षिण के. व्याघसरोवर में अभीर सामन्त ईश्वरसेन का ज़ोर है। वह गुप्त-सम्राटों का बड़ा ही विश्वासभाजन है। कुमार ने हमें आदेश दिया है कि नौका उत्तरी तट से ले जाई जाय और इन प्रान्तों में हमें कोई कान्यकुब्ज न समझ सके । अयं को भी इस स्थान पर सावधान रहना होगा । इस संवाद ने मुझे जैसे सोते से जगा दिया। मुझे कुमार का वह उपदेश याद आ गया, जिसमें उन्होंने संकोचपूर्वक बताया था कि झूठ बोलना सदा अनुचित नहीं होता। वह उपदेश क्या इसी अवसर के लिए था ? यदि इसी अवसर पर उस उपदेश की आवश्यकता है, तो हम निश्चय ही किसी भय-जनक स्थान पर आ गए हैं। मैं कुछ बोला नहीं ; पर मेरे मुख पर उद्वेग के चिह ज़रूर लक्षित हुए होंगे, क्योंकि उस प्रसन्न-मनोहर युवक के दीप्त भाल-पट्ट पर गाम्भीर्य दिखाई दिया, उसका गण्डस्थल घौत-केसर कदम्ब-पुष्प की भाँति परिम्लान हो गया और उसके लाल होंठ कुछ कहने के लिए व्यग्र भाव से स्फुरित हो गए। पर वह बोला नहीं । धीरे से प्रणाम करके चला गया और थोड़ी देर में एक वृद्ध सैनिक के साथ फिर लौट आया।