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बाण भट्ट की आत्म-कथा

मैं उस समय चिन्तित था। क्या फिर भट्टिनी को लेकर मैं भय-स्थान की अोर अग्रसर हो रहा हूँ १ परन्तु मैं तो कान्यकुब्जेश्वर के राज्य से बाहर निकल जाने के लिए ही चला हूँ। फिर डरने की बात क्या है ? वृद्ध सैनिक ने प्रणिपातपूर्वक निवेदन किया-'आर्य, इस बालक ने अपसे जो-कुछ कहा है, वह सत्य है ; परन्तु इससे आपके चिन्तित या उद्विग्न होने की बात नहीं है। दूसरी नौका में दस क्षत्रिय कुमार आपकी रक्षा के लिए तैयार हैं । आर्य, इन नाड़ियों में मौखरियों का उष्ण रक्त प्रवाहित हो रहा है। मैं प्रतापी यशोवर्मा का सेवक हूँ । मदमत्त हाथियों के धाराजले की वर्षा में मेरी अायु कटी है, शस्त्रों के झणत्कार में ही मैंने जीवन का संगीत सुना है, अश्व की पीठ पर ही मेरा विश्राम हुआ है। अज मौखरियों का प्रतापानल निवापित हो गया है ; किन्तु उस जाति में अब भी प्राण हैं। आज बड़े पुण्य से इस पवित्र जाह्नवी की जलधारा पर ब्राह्मण-दम्पती के सम्मान-रक्षा का भार इन भुजाश्रों पर है। आप निरुद्विग्न हों, अार्य ! आज तक चिअवम ने पराजय नहीं देखा हैं । मृत्यु की देहली पर खड़ा होकर कभी भी वह अपने समस्त जीवन के यश को काला नहीं होने देगा । वृद्ध की दपद्धत गवक्तियों में एक अत्यन्त सहज भाव था । उसके रोम-रोम से अात्म-विश्वास प्रकट हो रहा था । परन्तु मौखरिः शब्द ने मुझे चौंका दिया । भट्टिनी को यह मालूम नहीं होना चाहिए। परन्तु 'जान-बूझकर कुमार ने मौखरि वीरों को हमारी रक्षा के लिए क्यों नियुक्त किया है फिर इस वृद्ध क्षत्रिय सैनिक ने ‘ब्राह्मण-दम्पती' किसे कहा है ? मैं भीतर ही भीतर परिम्लान हो गया। ऐसा न हो कि इन दोनों में से कोई भी एक शब्द भट्टिनी के कानों में पहुँच जाय । छिः ! कैसी लजा की बात है यह। मैंने प्रसंग बदल कर अपने आपको ही भुलावा देने का प्रयत्न किया। बोला-‘जानता हूँ भद्र, प्रतापी यशोवर्मा की विमल कीर्ति से मैं परिचित हैं। कौन उस दुद्धर्ष