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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाणु भट्ट की आत्म-कथा । है, नहीं तो मौलरियाँ के कुल का कलंक यह राज नामधारी अत्याचारी भेड़िया कब का नरक जा चुका होता ।' वृद् की बातों से मैं आश्वस्त हुश्रा और अत्यन्त उत्साहपूर्वक उसे साधुवाद दिया । वृद्ध को मेरे सन्तुष्ट चेहरे से मानो कोई बड़ा भारी पुरस्कार मिल गया । वह प्रणाम कर के सहज भाव से चला गया। कुछ देर बाद नाव चल पड़ी। अभीर सामन्त रुद्रसेन सैनिकों को हमारे ऊपर सन्देह हो गया । उन्होंने नाव पकड़नी चाही। युद्ध अवश्यम्भावी था। वह शुरू भी हो गया। उस समय मुश्किल से आधी रात बीती होगी। हमारी नौकाएँ यथाशक्ति भागने की कोशिश कर रही थीं ; पर वे एक स्थान पर धेर ही ली गई। तमसा का संगम पार हो चुका था। और भी किसी छोटी नदी का संगम पीछे छूट गया था । हम प्राणों का पग लगाकर मगध की सीमा में घुस जाना चाहते थे। पर जो नहीं होना था, वह नहीं हुआ ; और जो होना था, वह हो गया । विग्रहवर्मा और उसके वीर सैनिक अद्भुत विक्रम के साथ प्रतिपक्षियों पर टूट पड़े। संख्या में वे उनके आधे से भी कम थे ; पर अब भागना सम्भव था। देखते-देखते उनके हुँकार से दिङ मण्डल, धनुष्टंकार से अाकाश-मण्डल और बाणों से गंगा की धारा परिपूर्ण हो गई । सुभटों के कवचों से स्फुल्लिग निकलकर अन्ध- कार की नीलिमा को छिन्न-विच्छिन्न करने लगे । हमारी नौकाएँ तेज़ी से पूरब की ओर बढ़ना चाहती थीं और और भी तेज़ी से हमारे प्रतिपक्षी हमें घेर लेना चाहते थे । वे क्रमशः समीप .आते गए और फिर इतनी दूरी पर रह गए कि बाग-यद्ध असम्भव हो गया । विग्रह- वर्मा ने मौ खरि-कुल लक्ष्मी राज्यश्री का नाम लेकर जय-निनाद किया और अपने सैनिकों को कुन्त सम्हाल लेने का आदेश दिया। मैं अब तक हतबुद्धि की भाँति इस युद्ध को देख रहा था। मैं अब भी यह अशा लगाए था कि किसी-न-किसी प्रकार यह विपत्ति दूर हो जायगी;