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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की श्रात्म-कथा परन्तु अब विपत्ति एकदम सिर पर आ गई । क्षण-भर में मुझे नगर- हार के पथ में आक्रान्त भहिनी का करुणापूर्ण मुखमण्डल स्मरण हो आया | मैंने देखा कि वह घटना पुनरावृत्ति की ओर आ रही है। मैं अब स्थिर न रह सका। मेरे शरीर पर वर्म नहीं था, हाथों में शस्त्र नहीं था और हृदय में श्रीशा भी नहीं थी। मैं स्पष्ट देख रहा था कि धीर नापित की भाँति मैं भट्टिनी का जय-निनाद करता हुआ खण्ड- खण्ड हो जाऊँगा । अधिक सोचना बेकार था । मैं भी विग्रहवर्मा की नौका की ओर बढ़ने को तैयार हुआ । केवल एक क्षण के लिए मैं भट्टिनी और उनकी नील उपास्य मूर्ति का ध्यान किए रहा। मेरे मन में कहीं भी कोई आशा नहीं थी ; पर फिर भी महावराह के भरोसे मैं थोड़ा आश्वस्त हो लेना चाहता था । दुर्बल का सम्बल ही ईश्वर है। मैं उठ पड़ा। जय हो उस महाविष्णु की, उस नरसिंह-मूर्चि की, जिनकी क्रोध-कम्पायित लाल दृष्टि ने ही हिरण्यकशिपु का वक्ष विदीर्ण कर दिया था। जय हो उस महिमाशाली बराह-मूत्ति की, जिसके चन्द्र-किरणों के अंकुर के समान दाँतों ने असुर-कुल में अन्धकर उत्पन्न कर दिया था। मैं उठ पड़ा । विग्रहवर्मा ने ललकारा–वीरो; मरण का ऐसा स्योहार नहीं मिल सकता । सावधान, शत्र ब्राह्मण- दम्पती की छाया न छू सके । जय मौखरि-कुल राजलक्ष्मी, जय महाराज्ञी राज्यश्री, जय-जय मौखरि-वंश, जय !! सुभटों ने एक साथ जय-निनाद किया और तीक्ष्ण फलक कुन्त लेकर प्रतिपक्षी भटों से गैथ गए। नार्वे प्रायः सट गई थीं । मल्लाहों ने भी विकट जय-घोष किया और गंगा की धारा रक्त से लाल होने लगा। । ठीक इसी समय धम्म से आवाज़ हुई । निपुणिका चिल्ला उठी--- भट्ट, बचाओ, बचाश्री । और वह स्वयं भी नदी में कूद पड़ी। मैं कुछ समझ नहीं सका । नीचे आकर देखता हूँ, तो भट्टिनी और निपुर्णिका पानी में डूब रही हैं। क्ष-भर में मैंने अपना कर्त्तव्य