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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अस्मि-कथा निर्णय कर लिया और पानी में कूद पड़ा । निपुणिका ने चिल्ला कर कहा -“मुझे छोड़ो, भट्टिनी को सँभालो । उधर देतो, उधर...” मैं भट्टिनी की ओर लपका | एक क्षण का विलम्ब हुआ होता, तो भट्टिनी गंगा के तल में होती । मुझ में न-जाने कहाँ से अद्भुत शक्ति आ गई थी । भट्टिनी को मैंने पकड़ लिया और अपनी पीठ पर डाल लिया । मुझे ऐसा लगा कि भट्टिनी काफ़ पानी पी चुकी हैं। वे अवश हो गई थीं और बहुत भारी लग रही थीं। फिर भी मैं उन्हें लेकर नाव की ओर लौटने की कोशिश करने लगा; परन्तु नाव पीछे छूट गई थी । मल्लाह और सैनिक मिलकर शत्रों से जूझ रहे थे । नाव को देखने की फुरसत किसी को नहीं थी । धारा के विरुद्ध मैं देर तक नहीं जूझ सका । लाचार होकर धारा के अनुकूल बहने लगा। एक बार मुझे लगा कि भट्टिनी को अपनी पीठ पर देर तक नहीं हो सकेंगा । मेरा शरीर क्रमशः क्लान्त होता जा रहा था । कहीं ऐसा न हो कि क्लान्ति के कारण मैं शिथिल हो जाऊँ और भट्टिनी मेरी पीठ से खिसक जायँ । मैंने अपने उत्तरीय से भट्टिनी को कस कर बाँधना चाहा । जब उत्तरीय भट्टिनी की भुजाओं में लपेटने लगा, तो कुछ कठोर वस्तु का अनुभव हुआ । खींच कर देखता हूँ, तो महावराह की मूर्ति है ! हाय, ‘जलौघमग्ना सचराचरा धरा' के उद्धार-कर्ता आज अपने भक्त को ही डुबा रहे हैं, यह कैसी विषम विडम्बना है ! भट्टिनी इस मूर्ति के कारण ही भारी लग रही थीं, और निरन्तर जो डूबती जा रही थीं, सो भी इसी के कारण | अवधूत का प्रश्न आज मूर्तिमान् होकर सामने आया, किसे बचाऊँ-भट्टिनी को या महावराई को ? अवधूत की क्रुद्ध मुद्रा याद आई-‘मूर्ख, तु महावराह को बचायगा ? सचमुच ही तो, इस महामहिमाशाली उद्धारकर्ता को बचा लेने का संकल्प क्या स्पर्द्ध नहीं है १ हे ‘जलौघमग्ना सचराचरा धरा के उद्धारकर्ता, तुम से अधिक चिन्ता मुझे तुम्हारे भक्त की है, अविनय