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बाण भट्ट की आत्म-कथा

१६८ बलुि भट्ट की अरम-कथा क्षमा हो, मैं तुम्हें गंगा की पवित्र धारा में विसर्जन कर रहा हूँ ! मेरे सामने अवधूत बाबा अधार भैरव की प्रसन्न मूर्ति खेज़ गई। ऐसा लगा कि वे प्रेम पूर्वक डाँट रहे हैं : ‘फिर झूठ बोलता है जन्म का पातकी, कर्म का अभागी, मिथ्यावादी पाषण्ड ! भहावराह को बचा- यगा तू ! दम्भी !! मैं कुछ लज्जित-सा हो रहा । फिर ऐसा लगा कि स्नेहपूर्वक कह रहे हैं : ‘देख बाबा, इस ब्रह्माण्ड का प्रत्येक अणु देवता है; त्रिपुर सुन्दरी ने जिस रूप में तुझे सब से अधिक प्रभावित किया है, उसी की पूजा कर ! फिर महावराह की मूर्ति मेरे हाथ से खिसक गई । अघोर भैरव की मूर्ति प्रकाश की और ऊपर उठने लगी । वह दूर से दूरतर होती गई। मेरी नाड़ी में रक्त का स्रोत क्षीण भाव से बहने लगा, भुजाएं शिथिल होने लगीं, अाँखों के सामने अन्धकार छा गया। सिर्फ दूर से बादलों को चीर कर एक आवाज़ कानों में प्रवेश करती रही ; *किसी से न डरना, गुरु से भी नहीं, मन्त्र से भी नहीं, लोक से भी नहीं, वेद में भी नहीं ! मेरी सारी चेष्टा अबसन्न हो गई, केवल चेतना पर मृदु अघात-सा करता हुआ वह अदृश्य शब्द आकाश में विलीन होते-होते भी बना ही रहा । अवधूत की मूर्ति और ऊपर उठी-नक्षत्र-मण्डल के भी ऊपर, और भी ऊपर, और भी...।। | मैं रेती से टकराया । अंग-अंग शिथिल हो चुके थे; परन्तु ज्योंही भट्टिनी का ध्यान आया, त्योंही एक शक्ति अचानक न-जाने कहाँ से जाग पड़ी । ग्ती पर बालू का एक ढुह इकट्ठा हो गया था। किसी प्रकार मैं भट्टिनी को वहाँ तक खींच ले गया। वे नि:संज्ञ पड़ी हुई थीं; परन्तु चेहरे पर कोई ग्लानि का चिह्न नहीं था। श्राद्र केश-मण्डल और भी मेचक हो गया था, बंकिम भ्र-युगले और भी जिह (कुटिल) हो गए थे और भीगे वस्त्रों से घनाश्लिष्ट सौन्दर्य-लक्ष्मी और भी अनु- भावती हो गई थी । ऐसा जान पड़ता था कि वे किसी मधुर स्वप्न में.