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बाण भट्ट की आत्म-कथा

व्याप्त हैं । सारा शरीर जल-चादर के अन्तराल से जगमगाती हुई दीप- ज्योति की तरह अाँखों को अपने स्निग्ध लोक से प्रसन्न कर रहा था । मुझ में इतनी भी शक्ति नहीं बची थी कि मैं भट्टिनी के लिए कोई उपयुक्त आश्रय की खोज करू । अवश अवसाद से मैं भी उसी ढूह पर पड़ रहा । धीरे-धीरे प्रभात हुआ । सूर्य देवता की लाल-लाल किरणों ने अन्धकार के घन आवरण को छेद डाला । दिनमणि जब आकाश में कुछ ऊपर उठ आए, तो मेरे शरीर में कुछ गम मालूम हुई । मैं उठ बैठा । हाय, जिस देवी को सुरक्षित रखने की बार-बार मैंने प्रतिज्ञा की थी, उसकी यह कैसी दशा हैं ! वस्त्र अस्त-व्यस्त हैं, मृणाल-नाल के समान कोमल भुज-लता शिथिल पड़ी हुई है, पद्म- पलाश को लज्जित करने वाले चरणतल रक्तहीन हो गए हैं और पद्मराग के समान प्रभा-३र्षण करने वाले नख पाएर हो गए हैं । बालुका का स्तरण क्या इस अपूर्व लावण्य-पुत्तलिका के योग्य है ? धिक् भाग्यहीन बण्ड ! धिक् !! सूर्य की किरणें बालू के कणों पर प्रतिफलित होने लगीं। ऐसा लगता था कि सूर्य देवता के घोड़ों के खुर|ग्र से नक्षत्र-मण्डली चूर्ण. विचूर्ण होकर पृथ्वी पर गिरी हुई हैं, और इस अनर्थ से मुह्यमान चन्द्रलक्ष्मी उनको ढकने के लिए भूलोक पर उतर आई है । हाय, विषम समर विजयी प्रत्यन्तवाड़व अविज्ञात प्रतिस्पद्धिविकट तुवर- मिलिन्द की कन्या को यह दिन भी देखने थे ! परन्तु शोक करना मूर्खता है । अभी थोड़ी देर में बालू कण अग्नि के समान तप्त हो जायँगे और भद्दिनी को और भी अधिक क्लेश होगा । क्या करू, कौन-सा उपाय है ? इस अवस्था में भट्निी को अकेली कैसे छोड़ १ अहा, इस समय निपुणिका का अभाव कितना दुःखदायक हो रहा है १ नियुणिका क्या बची है ? मेरी है। जब यह दशा है, तो नि पुणिक तो क्या बचेगी । वह ज़रूर डूबकर मर गई है। अरी ओ निउनिया,