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बाण भट्ट की आत्म-कथा

कहाँ है तू? देख, तेरी भट्टिनी कैसी अवस्था को प्राप्त हो गई हैं ! हाय, इस समय ऐसा भी तो कोई नहीं है, जो भट्टिनी के शिथिल वस्त्रों को टीक से सँभाल दे। निउनिया, जहाँ हो, दौड़ श्रा। कौन मेरी सहायता करेगा १ धीरे-धीरे अवधूत की मूत्ति आकाश से उतरने लगी। मेरी वाष्पपूर्ण अाँखों ने स्पष्ट ही देखा कि दिगन्त के दूसरे छोर से अघोर भैरव तेज़ी से मेरी ओर आ रहे हैं—'डरना किसी से भी नहीं, गुरु से भी नहीं, मन्त्र में भी नहीं, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं ! अाकाश से अघोर भैरव पुकार-पुकार कर कह रहे थे । मैं उठा, भट्टिनी के वस्त्रों को ठीक किया और नाड़ी की परीक्षा की । नाड़ी ठीक थी। मैंने धीरे-धीरे उनके ललाट पर हाथ फेरा, पैरों के तलवों को सहलाया, हथेलियों और भुजाओं को मृदु-मन्द भाव से दबाया और फिर ललाट पर हाथ फेरने लगा । भट्टिनी को होश आने लगा । रोत्पल के समान नयन-पक्ष में थोड़ी हलचल हुई और आँखें खुल गई । वे निदाघम्लपित जपा-पुष्प के समान लाल होकर भी म्लान थ, झंझा-विलोड़ित कांचनार के समान प्रफुल्ल होने पर भी क्लान्त थी, धूलि-पटलित अशोक-कुसुम के समान मनोहर होकर भी धूसर थीं । भट्टिनी ने मेरी ओर देखा, पहचाना भी। एक विवश लज्जा का भाव उस दृष्टि में स्पष्ट ही मैंने लक्ष्य किया ; परन्तु वे बोली नहीं, कोई इंगित भी नहीं किया । मुत्त-भर के बाद उन्होंने आँखें फिर बन्द कर ली । मेरा व्याकुल हृदय सहस्र-सहस्र स्रोतों में विगलित होकर बह जाना चाहता था ; परन्तु मैंने अपने को सम्हाला । भट्टिनी का सिर फिर धीरे-धीरे दबाने लगा। थोड़ी देर तक इसी प्रकार बीता। फिर मैंने उस सिर को उठाने का प्रयत्न किया। नयन-पक्ष्मों में फिर स्पन्दन हुआ । भट्टिनी की आंखें फिर खुलीं । उन्होंने बैठने की चेष्टा की और मैंने सहारा दिया। भट्टिनी उठ कर बैठ गई। उन्होंने केवल एक बार मेरी ओर