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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बारा भट्ट की अात्म-कथा देखा । उस दृष्टि में कोई जिज्ञासा नहीं थी, न उसमें कोई भाव था, न विभाव था, न राग था, न विराया--केवल एक शून्य दृष्टि ! सामने गंगा कलकल नाद करती हुई बह रही थी और तीर पर अपूर्व शोभा एवं सम्पत्ति को मूर्त विग्रहधारिणी भट्टिनी भूली-सी, भ्रमी-सी, खोई-सी बैठी हुई थीं । स्वभाव के उद्धत प्रमथ-गणों ने केशाकर्षण पूर्वक जब दक्ष की यज्ञ-क्रिया को खींचा था, तो वह कुछ इसी प्रकार भूली-भ्रमी गंगा की शरण में आई होगी, त्रिनयन के तृतीय नयन से स्फुल्लिग झड़ते देख भागी हुई चन्द्रकला कुछ इसी प्रकार अस्त-व्यस्त होकर गंगा के तट पर पहुँची होगी, असुर-निपीड़िता स्वर्ग-लक्ष्मी कुछ इसी प्रकार खोई हुई स्वर्मन्दाकिनी के तौर पर पहुँची होगी । आहा, उपयुक्त स्थान में भस्मावृता रति का आविर्भाव हुआ हैं, वराह-दन्त पर अधिष्ठिता धरित्री का श्रासन जमा है, राहु-भौता ज्योत्स्ना का पैन केन्द्रित हुश्रा है, असुर-त्रासिता सुधा का अवतार हुअा है, पल्लव- ग्राहियों से डरी हुई सरस्वती का निवास हुआ है, कृपण-शंकिता लक्ष्मी का आगमन हुआ है । भट्टिनी का खिन्न-मनोहर मुख-मण्डल इस अव स्था में भी अत्यन्त प्रभावशाली लग रहा था। थोड़ी देर तक वे गंगा के प्रवाह को एकटक देखती रहीं। यह कहना गंगा के लिए भी कठिन ही होगा कि इतनी पवित्र, इतनी निर्मल और इतनी गरिमा- भरी दृष्टि उन्होंने कभी देखी है या नहीं। मैं बड़ी देर तक कुछ बोल नहीं सका । परन्तु बालुका-राशि तप्त होती जा रही थी और अधिक देर तक वहाँ बैठना असम्भव हो रहा था। मैंने अत्यन्त विनीत भाव से कहा-देवि, अपिका शरीर क्लान्त है, सूर्यातप तीव्र होता जा रहा है। और बालुका-राशि तप्त होती जा रही है । आशा हो, तो किसी अश्रिय का सन्धान करू ।। भट्टिन ने फिर एक बार कातर भाव से मेरी ओर देखा । इस हुष्टि में भी कोई जिज्ञासा नहीं थी, मानो उनका पूर्व जीवन गंगा में ही