पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/१८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१७२
बाण भट्ट की आत्म-कथा

१७२ बाण भट्ट की आत्म-कथा धुल गया हो, मानो उसके विषय में पूछने लायक कुछ रह ही न था हो । हाय अभागे बाण, तूने भट्टिनी को किस अवस्था में डाल दिया है ! भट्टिनी कुछ बोलीं नहीं। वे फिर एक बार गंगा की ओर देखने लगीं । दूर तक सोपान-श्रेणी की भाँति गंगा की तरंगे' एक-दूसरे पर सजी हुई दिख रही थीं और भट्टिनी की स्निग्ध दृष्टि उन पर अचल मीन की भाँति बिछला रही थी। मैंने फिर संक्षेप में निवेदन किया--- देवि, क्या आज्ञा है ?' भट्टिनो ने क्षीण-भ्रान्त कराठ से कहा- 'चलो ।