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बाण भट्ट की आत्म-कथा

१९७४ बाणु भट्ट की अात्म-कथा ने कहा-'निउनिया भी तो इधर ही कहीं लगी होगी, भट्ट !! मैंने अत्यन्त नम्रतापूर्वक उत्तर दिया--‘हाँ देवि, मैं भी निऊनिया को खोजने को उत्सुक हूँ। परन्तु जब तक आपको किसी सुरक्षित स्थान पर न पहुँचा दू, तब तक:-1' भट्टिनी ने मेरे वाक्य का तात्पर्य समझ लिया। बीच में ही टोककर बोलीं---‘छोड़ो मेरी सुरक्षा की बात । तुम मुझे नहीं बचा सकते । कोई मेरी रक्षा नहीं कर सकता । मैं जिसके साथ रहूँगी, उसी को डुबाऊँगी । मैं सत्यानाश लेकर पैदा हुई हैं, वैसी ही रहकर जी सकती हूँ। मेरी चिन्ता छोड़ो । देखो, निउनिया ज़रूर कहीं पास ही में होगी ।' मेरे मुंह से बात नहीं निकली। भट्टिनी का ऐसा निराश मुख मैंने कभी नहीं देखा था। उनके दुःख में भी भक्ति और विश्वास साथ रहते थे। यह कैसा विकट परिवर्तन है ! मैंने कातरता के साथ उनकी ओर देखा । मेरी श्रआँखों में अश्र भर आए थे । एकाएक भट्टिी के नेत्र मेरी और फिरे । उनका दयाद्र' हृदय मेरा मुख देख कर उमड़ पड़ा। एक मुहूर्त के लिए एक भीगी हँसी की रेखा उनके सूखे अधरों पर खेल गई और फिर अविरल अश्रु-धारा बह चली । हाय महाकवि, तुमने हँसी-खुशी में ही ज़िन्दगी काट दी ! तुमने ऐसा करुणा-मोहक स्मित देखा होता, तो दुनिया को बता सकते कि वह कैसा था । पार्वती के लीला-स्मित को तुमने अमर कर दिया है; किसलय-विनिहित पुष्प में जो पवित्रता है और निर्मल विद्म-पात्र में रखे हुए मुकाफल में जो आभिजात्य है, वह तुमने लक्ष्य किया था; पर इनको स्वर्मन्दा- कालिदास के निम्नलिखित श्लोक से तात्पर्य जान पड़ता है :-- पुष्पं प्रबालोपहितं यदि स्यान्मुक्ताफ चेत् स्फुटविद्मस्थम् ।। सतोऽनुकुर्याद् विशदस्य तस्य तान्नौष्ठपर्यस्तरुधः स्मितस्य ॥