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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अात्म-कथा । किनी की धारा में लुढ़कते-पुढ़कते, बहते-उतराते तुमने नहीं देखा । यह वह पुष्प था, जिसके विकास के क्षण भर बाद ही धारासार वर्षा हो गई; यह वह तारिका थी, जिसके उदय होते हो कुज्झटिका से दिगन्त धूसर हो गया; यह वह इन्द्रधनुष था, जिसके उठते ही झंझा ने आकाश धूलिच्छन्न बना दिया । भट्टिनी सिर झुकाए रोती रहीं । मैं दिङ मूढ़ पथराई अाँखों से ताकता रहा ! | शाल्मली-वृक्ष की दूसरी श्रोर से किसी के आने की आहट मिली। भट्टिनी उस समय भी सिर झुकाए रोए चली जा रही थीं। मैं थोड़ा सतर्क हुआ । सिर उठा कर देखता हूँ, तो रक्ताम्बरधारिणी, त्रिशूल- पाणि भैरवी महामाया हैं ! क्षण-भर तक मैं अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं कर सकी; परन्तु वे महामाया ही थीं । वही पिंगल जटा-भार, कांचनार-शोण नयन, वन्धुजीब-वलय के समान रक्त पुण्डू', अष्टमी के चदि के समान प्रदीप्त ललाट-पट्ट और वह्निशिखा से लिपटी हुई दमनकयष्टि के समान रक्ताम्बर-समावृत तनु-लता । मुझे उस अवस्था में देख कर उन्हें आश्चर्य भी हुआ और कुछ लज्जा भी । वे न तो लौट ही सकीं, न कुछ पुछ ही सकीं। शैलाधिराज-तनया की भाँति उनकी भी ‘न-ययौ-न-तस्थौ अवस्था हो गई । मैं ससम्भ्रम उठ पड़ा। साष्टांग प्रणाम करने के बाद मैंने भट्टिनी को सम्बोधन करके कहा--- ‘देवि, उठो, पार्वती के समान प्रभावशालिनी साक्षात् महामाया-स्वरूपा महामाया माता हमारे सौभाग्य से यहाँ आ गई हैं । आज परम मंगल का दिवस है, ग्रहगण अाज प्रसन्न हैं, सविता श्राज प्रसन्नोदय हैं, कर्म- फल आज उपारूढ़ हैं । देवि, उठो, प्रणाम करके अपने को कृतार्थ करो । भट्टिनी को सम्हलने में क्षण-भर की देर लगी । उनकी कमल- जैसी अखें सूज कर लाल हो गई थीं, मुख-मण्डल निदाधलपित केतक- पुष्प के समान मुरझा गया था। मेरे कहने पर वे उठीं और महामाया को प्रणाम करके सिर झुका कर खड़ी रहीं । महामाया इस प्रकार