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बाण भट्ट की आत्म-कथा

निश्चल खड़ी रहीं, मानो उन्होंने कोई बड़ा भारी अपराध कर दिया हो । वे एक बार भट्टिनी की ओर देख रही थीं और एक बार मेरी श्रीर । लजा, जिज्ञासा और स्नेह तीनों ही उनके मुख पर अा-अाकर भाग जाते थे । मैंने उनकी जिज्ञासा को शान्त करना ही पहले उचित समझा । बोला--भगवति, यही वह भट्टिनी है, जिनके विषय में मैंने तत्रभवान् अघोर भैरव से निवेदन किया था। मैं इन्हीं का श्रकिं चन सेवक हूँ । इतना कहने के बाद मैं संक्षेप में कल की सारी कहानी कह गया | महामाया ने ध्यान से मेरी बात सुनी । उनके मुख से संकोच का भाव जाता रहा । मन्द स्मित के साथ उन्होंने भट्टिनो के सिर पर हाथ फेरा । फिर मेरी ओर देख कर कुछ चिन्ता-सी करती हुई बोलीं-- ‘साधु वत्स, तेरी कुल कुण्डलिनी जाग्रत है, तुझे अवधूत- गुरु का प्रसाद प्राप्त है । तेरी स्वामिनी की विपत्ति कट गई । पर तेरी विपत्ति तो अभी दूर नहीं हुई, बेटा !, फिर थोड़ा सोच कर बोलीं--- ‘अाज महानवमी है, त्रिपुर सुन्दरी की जो इच्छा होगी, वह टेल नहीं सकती ।' उनकी मुख-मुद्रा जरा कठोर हो गई, मानो वे अपने-अप से ही उलझ गई । मेरे मन में भय का भाव आया और चला गया; पर महामायो गम्भीर ही बनी रहीं । भट्टिनी भी कुछ शंकित हुई'; पर उन्होंने प्रयत्नपूर्वक अपने मनोभावों को दबा रखा । भट्टिनी की वह अवस्था देखने ही योग्य थी—-घन-कृष्ण केशपाश मुख-मण्डल पर वित्रस्त हो गए थे, बड़ी-बड़ी फूली अखें झुकी हुई थीं, प्रवाल-तान्न अधर-युगल दृढ़ भाव से संपुटित थे, अपांडुर कपोल-मंडल पर रोमराजि उभिन्न हो अाई थी, अतिम्रि चिबुक रह-रह कर हिल उठते थे, वाम बाहु श्याम-लता को भौति झूल रहा था और दाहिना हाथ कपोत- कर्बर अंशुकान्त (अचल) में छिपा हुआ था। वे पादांगुष्ठ से धरती कुरेद रही थीं और इस प्रकार मूर्त्तिमती चिन्ता बनी खड़ी थीं। महा- मायी की चिन्ता टूटी। उन्होंने भट्टिनी की ओर फिर देखा । एक