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बाण भट्ट की आत्म-कथा

१७८ बाण भट्ट की अात्म-कथा रहा है और मानव-परिचय से बिल्कुल अछूता बालुका-पुंज चिनचिना रहा है। मुझे भट्टिनी को छोड़कर इतनी दूर नहीं जाना चाहिए । लौटना पड़ा। जब में पहुँचा, तो दिन ढल चुका था । भट्टिनी और महामाया शाल्मली-वृक्ष के पूर्व और बैठी बातें कर रही थीं। उन्होंने मुझे नहीं देखा । इतनी देर में भट्टिनी ने महामाया का परिपूर्ण स्नेह प्राप्त कर लिया था | वे इस प्रकार उनकी गोद में बैठी हुई थीं, जैसे बहुत दिनों की बिछुड़ी कन्या माता के उत्संग में आ गई हो । महामाया पूछ रही थीं और भटिनी धीरे-धीरे उत्तर दे। रही थीं। बात का प्रसंग कुछ ऐसा था कि मैं चुपचाप छिप कर सुनने लगा । यह अन्याय था; पर अस्वाभाविक नहीं था । भट्टिनी और महामाया में कुछ इस प्रकार बात चल रही थी । ‘तो तू भट्ट को क्या समझती है, बेटी ?' क्या समझती हूँ भगवति, सो मैं नहीं जानती । निउनिया कहती थी कि भट्ट देवता हैं; पर मैं देवता कैसे कहूँ १ | तो तेरे मन में जो बात पहले अावे; उसे ही कह जान; सोच कर कही हुई बात सब समय सत्य नहीं होती ।' “क्या बताऊँ अर्थेि, जिस दिन भट्ट ने मुझसे प्रथम वाक्य कहा था, उस दिन मेरा नवीन जन्म हुआ; उस दिन सूर्य उदयगिरि के तट पर मांगल्य वर्षा कर उदित हुआ था; उस दिन उषःकाल ने मेरे सम्पूर्ण जीवन को परम सौभाग्य से भर दिया था। मैंने उस दिन अपनी सार्थकता को प्रथम बार अनुभव किया । 'सार्थकता ! सो कैसे बेटी ११ | ‘मतिः, भट्ट ने चकित मृग-शिशु के समान मेरी ओर देखा, मानो उन्होंने कोई नवीन प्रकाश, कोई अभिनव ज्योति देखी हो । उनके दीप्त ललाट-पट्ट पर भक्ति की शुभ्र किरण विराजमान थी। उनके विमल-विशाल नयनों में उज्ज्वल प्रकाश इस प्रकार फूट रहा था,