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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की ग्राम-कथा १७६ मानो दो ज्वलन्ते शुक्रतारे चमक रहे हों । उनकी कोमल-मधुर वाणी में एक अद्भुत मिटास था । भट्ट ने अत्यन्त स्पष्ट, संकोच-रहित और अर्थपूर्ण वाणी में जो दो-चार वाक्य कहे, वे सामान के समान पवित्र थे; परन्तु उनका माहात्म्य उससे अधिक था। राजभवन में अपने सौन्दर्य की चाटूक्तियाँ मैंने बहुत सुनी थीं; किन्तु सत्य वाणी मैंने पहली बार सुनी । मैंने प्रथम बार अनुभव किया कि मेरे भीतर एक देवता हैं, जो श्राराधक के अभाव में मुरझाया हुआ छिपा बैठा है । मैंने प्रथम बार अनुभव किया, भगवान ने नारी बना कर मुझे धन्य किया है; मैं अपनी सार्थकता पहचान गई । ‘कोई नई बात नहीं है, वेटी,' है माता, निश्चय नई बात है। यह नील आकाश, यह विलोल वायु, यह निर्मल जाह्नवी की धारा साक्षी हैं, नारी के लिए इतनी अर्थवती गाथा का साक्षात्कार इस भुवन-मण्डल में प्रथम बार हुआ है ।। तो तू सार्थकता किस बात को समझती है, बेटी १०

  • मैं अज्ञ हूँ, माता ! किस शब्द का कैसा प्रयोग होना चाहिए,

यह मुझे नहीं मालूम । पर भट्ट की वाणी सुनने के बाद मैंने पहली बार अनुभव किया, मेरा यह शरीर केवल भार नहीं है, केवल मिट्टी का ढेला नहीं है—वह उससे बड़ा है। विधाता ने जब उसे बनाया था, तो उनका उद्देश्य मुझे दण्ड देना नहीं था। उन्होंने मुझे नारी बना कर मेरा उपकार किया था। माँ, भट्ट इस पृथ्वी के पारिजात हैं, इस भवसागर के पुण्डरीक हैं, इस कण्टकमय भुवन के मनोहर कुसुम हैं।' महामाया थोड़ी देर तक चुप रहीं, फिर उन्होंने एक दीर्ध निःश्वास लिया। क्षणभर तक पूरी शान्ति रही। फिर एकाएक महामाया ने पराजित की भाँति कहा-क्या जानें क्या बात है बिटिया, गुरु ने मुझे