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बाण भट्ट की आत्म-कथा

१८२ बाण भट्ट की आत्मि-कथा कहा कि वज्रतीथ की देवी का दर्शन रात्रि में निषिद्ध है, उस समय वहाँ साधक लोग आते हैं, गृहस्थ का उधर जाना ठीक नहीं है । परन्तु मैंने उसकी सरलता की मन ही मन प्रशंसा करते हुए भी उसकी बात नहीं सुनी। सचमच ही संध्या हो अाई थी और मुझे भट्टिनी के पास लौट आना चाहिए थी; पर जाने कैसी एक अद्भुत शक्ति मुझे वज्र- तीर्थ की श्रीर ठेले लिए जा रही थी । यदि मैं कहूँ कि अपनी ही इच्छा के विरुद्ध मैं चल रहा था, तो लोग विश्वास नहीं करेंगे; पर सत्य यही है । मेरे पाश्र्व से अाँधी की तरह दौड़ती हुई एक रहस्यमयी स्त्री निकल गई। उसके गले में कपाल-माला झूल रही थी, कटि में हड्डियों की किंकणी खड़खड़ा रही थी और हाथ में नर-कपाल की खैजड़ी खनखना रही थी। उसकी जटाएँ न्यग्राध ( बरगद ) तक के प्ररोह के समान कर्कश थीं, जो कटि-विन्यस्त खट्वांग घण्टे से टकरा- टकरा कर कठोर ध्वनि उत्पन्न कर रही थीं और कपोल-देश पर लटकी हुई बराटक ( = कौड़ी ) माला से बार-बार उलझ पड़ती थीं । मेरे पाश्र्व को दरेरती हुई वह इस प्रकार निकल गई, भानो उड़ रही हो । मैं रज्जुबद्ध भरकट की भाँति खिचता ही चला था ! | वज्रतीर्थ एक विशाल श्मशान था । चारी श्रोर नीम के तेल में भुने जाते हुए लशुन के समान जलते शवों की दुर्गन्ध व्याप्त हो रही थी। सारा श्मशान-वाट गिद्धों और स्यारों के पद-चिह्न से भरा था । हड्डियों और मांस के छिन्न खण्डों के ऊपर सन्ध्या का धूसर प्रकाश बड़ा भयावना दिखाई दे रहा था। जलती चिताओं के पास थोड़ा प्रकाश दिखाई दे जाता था; परन्तु उनके श्रागे अन्धकार और भी ठोस हो जाता था । रह-रह कर उलूकों के धूरकार और शिवाअों के चीत्कार से श्मशान का वातावरण प्रकम्पित हो उठता था। इसी विकट दृश्य के बीच करालादेवी का मन्दिर था । मन्दिर वह नाम-मात्र का ही था । एक चत्वर, एक हवन-कुण्ड और एक यूपकाष्ठ के अति-