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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाणु भट्ट की अस्मि-कथा व्याकुलता से उन्हें देख रहा था। मेरी शिराएँ अधिक नहीं सँभाल सकीं । मुझे लगा कि कान के पास से रक्त की धारा फूट पड़ी है। रक्त देखकर अघोरघण्ट विचलित हुआ। उसने चण्डमण्डना को शीघ्रता करने का आदेश दिया। उधर भट्टिनी मूर्छित होकर गिर गई। भट्टिनी को मूर्छित देखकर मेरा उद्विग्न मस्तिष्क और भी विच- लित हुआ। निपुणिका उन्मत्त की भाँति वेदी की ओर बढ़ी। उसके पैरों में जैसे किसी ने अधी बाँध दी हो । महामाया प्रस्तर-प्रतिमा की भाँति निश्चल खड़ी थीं। भट्टिी की ओर उन्होंने देखा भी नहीं। उनकी अआँखों से एक अद्भुत ज्वालामयी ज्योति निकल रही थी । वे स्थिर भाव से निपुणिका को देख रही थीं। निपुणिका अधिी की तरह श्राई। उसने एक ही धक्के में चएडमण्डना को झटक कर छीन लिया । खट्वाग लेकर निपुणिका ने विकट नृत्य शुरू किया। उसके उद्धत संचार से हवन-कुण्ड' विध्वस्त हो गया, लाल पताका विच्छिन्न हो गई और यूपकाष्ठ चुण-विचूर्ण हो गया । ओह, कितना उत्ताल था वह नर्तन ! उसके एक-एक पद-संचार से धरित्री धसक रही थी, तारा-मण्डल लड़खड़ाता-सा जान पड़ता था और कराला का मुण्डमाल खटखटा उठता था। मैं महामाया की ओर देखने लगा। वे स्थिर भाव से निपुणिका की ओर देख रही थीं। अचानक उनकी दृष्टि मेरी अओर फिरी । मालूम हुआ, जैसे सहस्र-सहस्र सूर्य इधर ही टूट पड़े। हों, जैसे कोई विचित्र धूमकेतु मेरी ओर लपक पड़ा हो। मैं लड़खड़ा गया। निपुणिका बेहोश नीचे गिर गई । अबकी मेरी बारी थी। मैंने अघ (घण्ट को कन्धे पर उठा लिया और किस प्रकार का ताण्डव किया, वह तो याद नहीं है; पर इतना ही याद है कि श्मशान का कोई भी कोना मेरे उत्ताल नर्तन से अस्पृष्ट नहीं रहा । अन्त में मैंने अघोर घण्ट को गंगा में फेंक दिया । महामाया भीमवेरा से मेरी ओर दौड़ीं और मुझे घसीटती हुई पूर्व की ओर भाग---और भी तेज़,