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बाण भट्ट की आत्म-कथा

१८६ बाण भट्ट की आत्म-कथा और भी, और भी ! गंगा और महासरजू के संगम पर अवधूत अघोर भैरव एक शव पर आसन जमाए चुपचाप ध्यानमग्न बैठे थे। मैं बुरी तरह हाँफ रहा था। मुझे पीछे ढकेल कर महामाया ने चीत्कार किया--त्राहि गुरो, त्राहि !' अघोर भैरव ने आँखे खोलीं और कुछ आश्चर्य के साथ बोले--‘महामाया, महामाया, महामाया ! महामाया निश्चेष्ट, हतसंज्ञ ! गुरु ने मुझे देखा । मैं हाँफता हुआ भू-लु ठित हो गया। केवल दीर्घ-श्वास के साथ बोला---त्राहि !' अघोर भैरव ने मुझे घसीट कर शव पर खींच लिया और ललाट पर हाथ फेरा । बोले- “तो तू अभी जीता है ! त्रिपुर भैरव की माया है ! फिर उनके इङ्गित पर मैं संक्षेप में उन्हें सारा वृत्तान्त सुना गया ! वे अविचलित रहे। केवल एक बार महामाया की ओर देखकर हँसे । ज़रा फटकारते हुए से बोले-‘पराली ! डरती है ! हाथ में थोड़ा-सा जल लेकर उन्होंने महामाया के मुख पर फेंका । वे थोड़ा सचेत हुई। कुछ रुककर महा- माया से धीरे-धीरे ने-जाने क्या कहा । महामाया वहाँ से कराला देवी के स्थान की ओर चली गई। | अवधूत थोड़ी देर तक चुपचाप ध्यानस्थ बैठे रहे। उनकी कौड़ी- जैसी अखे बिल्कुल निश्चेष्ट थीं। थोड़ी देर बाद मेरी पीट पर हाथ फेरते हुए उन्होंने कहा--'तू कवि हैं न रे ?? अजीब प्रश्न है ! इस समय कवित्व की क्या आवश्यकता है ? मैं कुतूहल के साथ उनकी श्रोर ताकने लगा | क्षण-भर बाद बाबा ने डाँटा---‘हाँ क्यों नहीं कहता, अभाग १' मन्त्रमुग्ध की भाँति मैंने कहा--‘हाँ आर्य ! बाबा ने रस लेते हुए कहा --‘पापण्ड ! पहले क्यों नहीं बोला १? मैंने संकोचपूर्वक कहा-मैं नहीं जानता अर्य, भट्टिनी ने मुझे कवि कहा थ। और श्राप कहवा रहे हैं । बाबा ने और भी रस लेते हुए कहा- “तू अपनी भट्टिनी की स्तुति कर सकता है ? मैंने तुरत जवाब दिया--