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बाण भट्ट की आत्म-कथा

ग्यारहवाँ उच्छ्वास मेरा सारा शरीर एक प्रकार की अवश जड्मिा से भाराक्रान्त हो रहा था | तीन दिन और तीन रात तक मैं संज्ञाहीन पड़ा रहा, और जब चैतन्य-लाभ हुआ, तब भी स्वप्नावेश को माया मेरे सारे अस्तित्व को अभिभूत किए रही। मैं मानो एक तरल मरु कान्तार में बृन्तच्युत तूल-खण्ड की भाँति उतरा रहा था। मुझे ऐसा लगता था कि इस तरल कान्तार का कोई शोर-छोर नहीं हैं---दिगन्त के एक किनारे से दूसरे किनारे तक वह विशाल अजगर की भाँति निश्चेष्ट पड़ा हुआ है। क्षितिज भी उसे छूने में शंकित हो रहा है और वायु की लहरियाँ भी उसे विलुब्ध नहीं कर रही हैं । बीच-बीच में सुदूर आकाश के कोने में चन्द्र-मंडल की क्षीण आभा दिखाई देती और वहीं से प्रफुल्ल शत- दल पर वज्रासनासीन कर्पूरगौरी नन्द भैरवी धीरे-धीरे उतरतीं। उनकी अठारह भुजाओं के विविध अस्त्र चन्द्रमा की पिंगल प्रभा में झलमलाया करते और उनकी गोद को रजत कलश गैरिक वस्त्र की आभा से सिन्दूर-मनोहर कान्ति धारण करता। उनके तीनों नयनों से अमृत का स्रोत झरता रहता और उनकी विद्रुमांकुर के समान लाल- लाल अँगुलियाँ मेरे केशों में उलझ जातीं। किसलयों को भी लजित करने वाली उनकी हथेली जब मेरे ललाट देश पर फिरती रहती, तो मेरे सौ-सौ जननान्तर कृतार्थ हो जाते । बीच-बीच में मुझे धरती का आकर्षण नीचे की ओर खींचता; परन्तु उसमें शक्ति ही न होती। जिस दिन वह अाकर्षण अत्यन्त प्रबल भाव से अनुभूत हुआ, उस दिन वह दिगन्त-प्रसारी तरल कान्तार सदा के लिए विलुप्त हो गया, स्वप्न का श्रावेश टूट गया, जड़िमा जाती रही और अखें खुल गई ।