पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/२०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१९०
बाण भट्ट की आत्म-कथा

एक दुर्निवार सम्भ्रम-वेग मुझे ठेलकर उठने को बाध्य करने लगा ; पर भहिनी ने मुझे उठने से रोका । उनके स्नेह-मेदुर नयनों में वाष्प- बिन्दु भर आए थे, उनके म्लान मुख-मण्डल में लालिमा का संचार हो गया था और सम्पूर्ण सत्ता से एक कातर प्रार्थना प्रतिध्वनित हो रही थी। मुझे निषेध करने के लिए उन्होंने प्रयासपूर्वक अपने कोमल करतलों में मुझे दबाया। उनके मुख से केवल एक ही शब्द निकल सका-‘नहीं ।' उनका गला सँधा हुआ था, दृष्टि कातर थी। और करतल स्वेद-धारा से श्राद्ध था । मुझमें तब भी उठने की शक्ति नहीं थी । मैंने अखें मूंद लीं और भट्टिनी की स्नेह-मेदुर मुख-श्री का ध्यान करने लगा। कहाँ भटक रहे हैं इस मत्र्यलोक के बावुल कवि १ लक्ष्मी क्या स्वर्ग में रहती हैं । इस पृथ्वी पर ही तो वे अवतीर्ण हुई हैं । भट्टिनी से बढ़कर किस श्रीशालिनी की कल्पना हो सकी है ? इन पाणि-पल्लवों के आगे स्वर्ग का पारिजात-पल्लव कितनी तुच्छ कल्पना है और काल्पनिक अमृत क्या इस करतल-सावी स्वेद-धारा से अधिक शामक होता होगा ! मेरा मन-प्रा-अात्मा सब-कुछ मानो आनन्द स्रोत में निमजित हो गए। मेरी अाँखें बन्द ही रहीं। मैं क्षण-भर के लिए मोहाविष्ट-सा हो रहा ।। | इसी बीच महामाया अकर मेरे सिरहाने बैठ गई और बड़े स्नेह के साथ मेरी भृकुटियों के अन्तराल को धीरे-धीरे सहलाने लगीं। मुझे इस मातृ-स्नेह का आस्वाद स्वभावेश में आनन्द भैरवी के हाथों हो चुका था। मैं अर्द्धचैतन-सा उसी प्रकार पड़ा रहा। महामाया ने भट्टिनी की आँखों में असु देखकर स्नेहपूर्वक डाँटते हुए कहा--फिर रो रही १ सुत ----श्रीरेषा पाणिरप्यस्याः पारिजातस्य पवः ।। कृतोऽन्यथा सदस्यस्यात्स्वेदच्छामृतमः । -रत्नावली ३-४३