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बाण भट्ट की आत्म-कथा

अक्षय-तृतीया में तो अब ज्यादा देर नहीं है । यहाँ तुझे कोई भय नहीं है। लोरिकदेव बड़ा धार्मिक सामन्त है । तुझे कोई कष्ट नहीं होगा । क्या कहती है, जाऊँ न ?' भट्टिनी ने दृढ़ता के साथ संक्षेप में उत्तर दिया- ना ! महामाया गुनगुनाती हुई मानो अपने-आप से ही बोलीं--*फिर माया के कंचुक में कसी जा रही हैं। त्रिपुर भैरवी, तुम्हारी लीला अपरम्पार है । काल, नियति, राग, विद्या और कला माया के कंचुक हैं; पर सत्य हैं। इन्हें अतिक्रम कौन कर सकता है ? त्रिपुर सुन्दरी की लीला है ? | भट्टिनी ने चिन्तित होकर कहा-मैं तप में विप्न पैदा कर रही हूँ, माता ?' | महामाया ने स्नेहपूर्वक कहा--ना रे, ना । मैं विन्नों की पूजा का ही तो तप कर रही हैं। विघ्र ही तो मेरे उपास्य हैं। तेरे शास्त्रों के अनुसार तू भी तो एक विश्न ही हैं। विधाता ने विप्न के रूप में ही तो सुन्दरियों की सृष्टि की थी । क्यों रे, तू अपने को किसी का विप्न नहीं समझती १: | भट्टिनी ने सहज भाव से उत्तर दिया--'तुम्हारे ही लिए क्या विश्न नहीं बन रही हूँ १ । मेरे लिए १ नहीं; मैं स्वयं विघ्रूपा हूँ। नाः, तू नहीं समझेगी । ‘तो नारी का जन्म विघ् के लिए ही हुआ है, माता १२

  • इतिहास तो यही कहता है रे ! पुरुषों के समस्त वैराग्य के

श्रायोजन, तपस्या के विशाल मठ, मुक्ति-साधना के अतुलनीय अश्रय नारी की एक बंकिम-दृष्टि में ही तो ढह गए हैं। क्या यह दृष्टि सत्या- नाशिनी नहीं है ?? थोड़ी देर तक निस्तब्धता रही। ऐसा जान पड़ा, भट्टिनी हार गई हैं । महामाया के प्रश्न का प्रतिवाद करने के लिए मेरा रोम-रोम