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बाण भट्ट की आत्म-कथा

१६४ बाण भट्ट की प्रात्म-कथा इस मांस-पिण्ड को स्त्री या पुरुष समझती है ? ना सरले, यह जड़ मांस. पिण्ड न नारी है, न पुरुष । वह निषेधरूप तत्त्व ही नारी है । निषेध. रूप तत्त्व याद रख । जहाँ कहीं अपने श्रापको उत्सर्ग करने की, अपने. श्रापको खपा देने की भावना प्रधान है, वहीं नारी है | जहाँ कहीं दुःख-सुख की लाख-लाख धाराओं में अपने को दलित द्राक्षा के समान निचोड़कर दसरे को तृप्त करने की भावना प्रबल है, वहीं 'नारी-तत्त्व है, या शास्त्रीय भाषा में कहना हो, तो 'शक्ति-तत्त्व है। हाँ रे, नारी निषेधरूपा है । वह श्रानन्द-भोग के लिए नहीं पाती, अानन्द लुटाने के लिए आती है । अाज के धर्म-कर्म के प्रायोजन, सैन्य-संगठन और राज्य-विस्तार विधिरूप हैं । उनमें अपने आपको दूसरों के लिए गला देने की भावना नहीं है, इसीलिए वे कटाक्ष पर ढह जाते हैं, एक स्मित पर बिक जाते हैं। वे फेन-बुदबुद् की भाँति अनित्य हैं । वे सकत सेतु की भाँति अस्थिर हैं । वे जल-रेखा की भाँति नश्वर हैं । उनमें अपने-आपको दूसरों के लिए मिटा देने की भावना जब तक नई आती, तब तक वे ऐसे ही रहेंगे। उन्हें जब तक पूजाहीन दिवस और सेवाहीन रात्रियाँ अनुतप्त नहीं करतीं और जब तक निष्फल श्रयदान उन्हें कुरेद नहीं देता, तब तक उनमें निषेधरूपा नारी-तत्त्व का अभा रहेगा और तब तक वे केवल दूसरों को दुःख दे सकते हैं ।' महामाय थोड़ा रुकी। वे कुछ भावाविष्ट की अवस्था में थी। तनिक विश्राम करने के बाद वे सम्हल गई। उन्हें रोगी के सिरहाने बैठ कर देर तक बोलते रहने से कुछ ग्लानि हुई । मेरी आँखों पर अँगुलि फेरते हुए उन्होंने मानो झेप मिटाने के लिए ही कहा-'भट्ट अब स्वस्थ है अभी जगेगा। भट्टिनी कुछ बोली नहीं। मैंने श्राखें खोली । भट्टिनी इस बार सम्हली हुई थीं। उनके बड़े-बड़े नयन महामाया के व्याख्यान-अन्य आश्चर्य से अब भी मुक्त नहीं हो सके थे। अब भी उड़ने के लिए