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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की ग्राम-कथा १९५ सावधान खंज़न-शाचे की तरह उत्क्षिप्त भृकुटियों में झूल रहे थे । महामाया ने जब धीरे-धीरे प्रश्न किया कि कैसा लग रहा है, तो वे आग्रहपूर्वक झुक अाई । मैंने सेवेत से बताया कि स्वस्थ हूँ। अब भी मेरे अन्दर बोलने की शक्ति नहीं थीं । महामाया और भट्टिनी की बातचीत से ही मुझे मालूम हो गया था कि मैं लोरिकदेव नामक अभीर सामन्त के घर में हैं और निपुगि का भी कहीं इधर ही शय्या- शायी पड़ी है । इसीलिए बहुत श्रायमपूर्वक मैंने पूछा कि निपुणिका की क्या हालत है १ महामाया ने बोलने से मुझे रोकते हुए कहा- 'ठीक है ।। तीन दिन बाद मैं सम्पूर्ण स्वस्थ हो गया । अभीर सामन्त ने दूध-घी से हमें स्नान-सा करा दिया । इतना अतिथि-वत्सल व्यक्ति मैंने पहले नहीं देखा था । इस बीच महामाया विन्ध्य गिरि के किसी अज्ञात शक्तिपीठ को चली गई हैं। नि पुणिका की संज्ञा लौट आई है, यद्यपि वह अब भी अत्यन्त क्षीण है। भट्टिनी में स्वाभाविक ज्योति फिर से प्रतिष्ठित हो गई है । विग्रह वर्मा और उसके सैनिक वज्रतीर्थ के पास ही कहीं नौका रोके पड़े हुए हैं । वे नित्य आकर हमारी खबर ले जाते हैं । मैं सब मिलाकर प्रसन्न ही हूँ । सोच रहा हूँ कि निपुणिका अच्छी हो जाय, तो शीघ्र ही मगध की श्रोर चल दें । परन्तु इस बीच एक घटना ऐसी हो गई कि मेरी सारी योजना चौपट हो गई। मैं भद्र श्वर-दुर्ग के पश्चिमी प्राचीर पर खड़ा होकर सूर्यास्त का सौन्दर्य देख रहा था । सूर्य मण्डले अपने किरण जाल को ऊपर की अोर समेट रहा था। ऐसा लग रहा था, मानो दिवस-लक्ष्मी अाकाश के पश्चिम-प्रान्त से नीचे की ओर चली जा रही हैं और उनके द्र म संचारित चरणों से पद्मराग-मणि के नूपुर खिसक कर पीछे छूट गए हैं। सूर्य-बिम्ब ने सारा दिन करपुटों से जो कमल-पराग संग्रह किया था, वह मानो अचानक ढरक गया और सारा आकाश पद्मराग के