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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा हुई थीं, अधरोष्ठ कुंचित थे और चिमुक भारग्रस्त था। स्पष्ट ही भट्टिनी को मेरे देर से आने के कारण खीझ हुई थी; पर सहज अभिजात्य- गौरव से उस क्रोध में भारीपन आ गया था । उनकी वाणी में शासन का आज था, अधिकार का स्वर था स्नेह की मृदुना थी। मैंने सस- म्भ्रम उत्तर दिया कि मैं दुर्ग में ही था । झण-भर के लिए मैं चिन्तित भी हुआ इतना क्या सह्य होगा ! परन्तु मुझे चिट्ठी पढ़ने की जल्दी थी । संधेि अपने शयन के पास गया। वहाँ दीपक रखा था। पत्र खोल कर पढ़ने लगा। पत्र अशुद्ध संस्कृत में लिखा था । जान पड़ता था, किसी आँवार ने उसे नक़ल किया हैं; परन्तु उससे चिट्ठी के भावार्थ को समझने में बाधा नहीं पड़े । चिट्ठी की प्रत्येक पंक्ति मेरे रक्त में सनभनी पैदा करने लगी । मेरं) शिराओं में विचित्र विलोइन होने लगा। मुझे ऐसा लगा कि फिर मूर्छित होकर शय्या-शायी हो जाऊँगा । मैंने पत्र कई बार पढ़ा। जय अपने के सम्हालने में समर्थ हो सका, तब रात्रि एक प्रहर बीत चुकी थी । पत्र में लिखा था :- | स्वस्ति । पुरुषपुर से सामवेद की कौथुमीशाखा का अध्याय जैमिनी गोत्रोत्पन्न कान्यकुब्ज भर्व शर्मा ब्राह्मणों और श्रमणों के नाम पर, देवमन्दिरों अौर विहारों के नाम पर, स्त्रियों और बालकों के नाम पर समस्त शायदत्त के निवासियों को आवेदित करता है । | ‘भाइयो, फिर प्रत्यन्त दस्यु आर रहे हैं। देवता भी जिस आर्य- भूमि में निवास पाने की स्पृहा करते हैं, उस पवित्र भारत-भूमि की अट्टालिकाएँ फिर भस्म होंगी, फिर वे दिनान्तकालीन प्रचण्ड अधी से छिन्न-भिन्न मेध-पटल की भाँति श्री-हीन हो जायँगी । शंख और घण्टा-निनाद से मुखरित राजपथ फिर शृगालों के विकट नाद से भयं- कर हो उठेंगे । अन्तःपुर की ललनाअों की विलास-पुष्करिणियाँ जंगली भैंसों के लोटने से फिर गदली होगी । सुवर्णयष्टियों पर विहार करने वाले क्रीड़ा मयूरों के वहि-भार फिर दावाभि से झुलस जायेंगे।