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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा १६६ ने यौधेयों का दर्प-दलन किया था, म्लेच्छों का मान-मर्दन किया था, मन्दिरों और मठों के विध्वंसकों का प्राण-हरण किया था। आज नृसिंह-पराक्रम चन्द्रगुप्त नहीं हैं, जिन्होंने चारों समुद्रों को अपने सुर- भित यश से सुगन्धमय बना दिया था ; जिनके हुंकार-मात्र से प्रत्यन्त सामन्त सिर झुकाने को बाध्य हुए थे ; जो विद्या और कला के सर्वस्व थे १ जो स्त्रियों और बालकों के अभय थे ; जो देवमन्दिरों और विहारों के आश्रयस्थल थे। आज प्रचण्ड पराक्रम मौखरि-वीर ग्रहवर्मा भी नहीं हैं, जो शत्रुग्रों के लिए काल और दोनों के लिए कल्पवृक्ष थे। अाज टिड्डियों से भी विपुल, भेड़ियों से भी क्रर, गृध्रों से भी निघृण, शृगालों से भी हीन और कृकलाम से भी अधिक बहुरूपी हूण दस्युयों से इस पवित्र भूमि को बचाने की सामर्थ्य कौन रखता है ? एकमात्र देवपुत्र तुवरमिलिन्द ।—भाइयो, अत्यन्त दस्यु फिर आ रहे हैं। “जय हो उस अज्ञात-प्रतिस्पर्द्धि-विकट देवपुत्र तुवर मिलिन्द की । जय हो इस आर्यभूमि को । भाइयो, देवपुत्र की नयनतारा की, उनकी प्राणाधिका कन्या को खोजो—यही एकमात्र रक्षा का उपाय है । मैं ब्राह्मणों और श्रमणों के नाम पर, देवमन्दिरों और विहारों के नाम पर, स्त्रियों और बालकों के नाम पर, विद्वानों और तपस्वियों के नाम पर भूमि के निवासियों को आवेदित करता हूँ । भाइयो, प्रत्यन्त दस्यु फिर आ रहे हैं ! “अपरं च मैं अशीतिपर वृद्ध हैं। मैं सामाध्यायी कान्यकुब्ज ब्राह्मण हूँ। मैं मौखरियों का गुरु हूँ मैं अपना ही शपथ देकर निवेदन करता हूँ कि जो कोई इस पत्र को पड़े, वह इसकी दस प्रतियाँ लिखकर अन्य लोगों को दे दे। यह क्रिया तब तक चलती रहे, जब तक देवपुत्र की प्राणाधिका कन्या का पता न लग जाय ।---इति शुभमस्तु ।' मेरी उत्तेजना तब भी शान्त नहीं हुई थी । किससे इस विषय में कुछ परामर्श लें। भट्टिनी को यह संवाद नहीं देना चाहिए। निपु-