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बाण भट्ट की आत्म-कथा

३०२ नाणे भट्ट की आत्म-कथा ब्राह्मण और श्रमण आज वीत-विघ्न हैं, तरुणियाँ और बालक आज निश्चिन्त हैं । आज धरित्री प्रसन्न है, दिशाएँ निर्मल हैं, वायु पवित्र है। प्रत्यन्त समुद्र में फिर वाड़वाग्नि की ज्वाला धधकेगी, देवपुत्र की भुजारूप वह्नि-शिखा में आज फिर पापदस्युअों की आहुति होगी। देवि, मैं धन्य हूँ। भट्टिनी अविचलित चित्त से मेरी स्तुति सुन रही थीं। उनमें एक दिव्य ज्योति प्रत्यक्ष दिखाई दे रही थी। मुझे ऐसा लगता था कि पार्वती ही भक्त की स्तुति सुनने के लोभ से रुक गई हैं । मैंने दीप्त श्रद्धा के साथ और कहना शुरू किया । भट्टिनी ने डाँटा--'यह क्या बालको की भाँति उत्तरल भाव है, भट्ट ! मैं देवी नहीं हूँ। हाड़-मांस की नारी हूँ। मैं विघ्-स्वरूपा हूँ; परन्तु मैं जानती हूँ कि मेरा विघ्-रूप होना ही विश्व का परित्राण हैं । तुम्हीं ने मुझे यह ज्ञान दिया है भट्ट, और तुम्हीं उसे भुलवाने को प्ररोचित कर रहे हो ? मैं हूँ चन्द्रदीधित--- सौ-सौ बालिकाओं के समान एक सामान्य बालिका ! मैं हूँ तुम्हारी भट्टिनी,-' अचानक वे रुक गई। कुछ कहती-कहती भी न कह सकी। केवल वाष्परुद्ध कण्ठ से उपसंहार करती हुई बोलीं-मैं देवी हैं, चलो, प्रसाद लो।। | भट्टिनी चलीं और मैं अपने ही ऊपर झु झनता हुआ उनके पीछे हैं। लिया । तुम कह सकती हो, तुम देवी नहीं हो ; पर जिस दिन में तुम्हें देवा है, उस दिने ने मेरा सारा अन्तरतर अपने को नि:शेष करके तुम्हारी सेवा के लिए दरक जाना चाहता है, सम्पूर्ण अस्तित्व परिणाम-रक्त दाडिमी फल की तरह तुम्हारे लिए फट पड़ना चाहता है, सारी वाग्धारा उद्वल जलराशि की भाँति तुम्हारी सत्ता को निमजत कर लेना चाहती है—यह क्या बालकोचित उत्तरल भाव है ? मैं अकिंचन हूँ, साधनहीन हैं, पथभ्रान्त हूँ। मेरे पास है ही क्या, जिससे तुम्हारी पूजा करू १ तुम देवी हो ; सौ बार प्रतिवाद करो,