पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/२१६

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द्वादश उच्छ्वास भद्र श्वर स्वस्तिकाधार दुर्ग था । लोरिक देव का राजभवन केन्द्र स्थल पर था। हम लोगों के ठहरने को जो स्थान दिया गया था, वह पूर्वी तोरण से बिलकुल सटा हुआ था । वहाँ से परिखा तक कुमपृष्ठ की भाँति उन्नतोदर राजमार्ग था, जो आगे चल कर दाहिनी अोर वक्राकार होकर घूम गया था। राजमार्ग के दोनों शोर समृद्ध नार- रिकों के बड़े-बड़े सौध थे । रात को इन मकानों के वातायनों से दीपा- लो* की क्षीण रश्मियाँ ही दिखाई पड़ती थीं ! सारा मार्ग विशाल अजगर की भाँति निस्तब्ध पड़ा दिखाई देता था। भट्टिनी के हाथ छ । प्रसाद पाकर मैं बाहर आया और एक छोटी-सी स्थरिडल-पाटिका पर बैठकर पूर्व की ओर जाने वाले इस राजमार्ग को देखने लगा। अाकाश एक विकच कमल-सरोवर की भाँति लग रहा था । रात के सन्नाटे में यह छोटा-सा दुर्ग-नगर बहुत मनोहर जान पड़ता था। मेरे मन में भवुशम के पत्र की स्मृति वैसी ही बनी हुई थी । यद्यपि भट्टिनी के प्रसन्न मुख से मैं था: । शाश्वस्त हो गया था; पर मेरा कर्तव्य-भार हल्का नहीं हुआ था । मुझे ऐसा लग रहा था कि निपुणिक इस विषय में मेरी सहायता कर सकती है । निपुगि केा से मैं खुलकर बाते कर सकता हूँ। भट्टिनी के सामने मुझमें एक प्रकार की मोइनकारी जट्टिमा आ जाती है। मैं सोच रहा था कि प्रातःकाल इस विषय में निउनिया से परामर्श करूगा। वह भट्टिनी को अच्छी तरह पहचानती हैं। मैं अब भी उन्हें पहचान नहीं पाया हूँ । धीरे-धीरे पूर्व-गगन-मंच पर चन्द्रमा का अभ्युदय हुश्रा । सारा भुवन-मण्डल पहले सिन्दूराग से लाल हो उठा और फिर मान धवल