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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बा भट्ट की आत्मकथा ३९५ चन्दन-रस की धारा से प्राप्तावित हो गया । भवन-वलभियों के पारा- बत में क्षण-भर के लिए चंचलता आई। उनके भस्म के समान कर्बर- पा रह-रह कर फड़फड़ा उठने लगे, और उन्हीं से मानो अन्धकार झाड़ दिया जाने लगा । चमगीदड़ों की छाया कभी-कभी मेरे सिर पर से पार कर जाने लगी । उन्हें देख कर अनुमान होता था कि अन्ध- कार-रूपी सेनापति के इक्के-दुक्के सैनिक अवसर पाकर इधर-उधर भाग जाने की चेष्टा कर रहे हैं। सारा वातावरण शान्त और मनोरम हो गया । चन्द्रमा की स्निग्ध ज्योत्स्ना में स्नान-सा करता हूश्रा भद्र'. श्वर-दुर्ग और भी मनोहर हो उठा। मैंने सोचा कि जिस दिन कपूर- धवल महादेव के जटाजूट से शतधार होकर गंगा की धारा हिमालय पर गिरी होगी, उस दिन उसकी शोभा कुछ ऐसी ही रही होगी–अभ्र- भी श्वेत शिखर यथास्थान इसी प्रकार अविचल खड़े होंगे, जिस प्रकार भद्र श्वर की सौध-अट्टालिकाएँ दिख रही हैं। कभी न बुझने वाली “श्रौषध-मणियाँ उस श्वेत धारा में इसी प्रकार जल रही होंगी, जिस प्रकार इस दुर्ग के प्रासाद-वातायनों में प्रदीप जल रहे हैं। मेखला को घेर कर संचरण करने वाले मेघखण्ड उसी प्रकार सिमट गए होंगे, जिस प्रकार इन दुर्ग-हम्र्यों को तिरष्करणियाँ ( प ) सिमट गई हैं। और दरीगुहाअों में शयन करने वाली सिद्धवधुएँ मन्दाकिनी के निर्भर-सीकरों से सिक्त वायु को उसी प्रकार अलस-विलसित से उप- भोग कर रही होंगी, जिस प्रकार इस दुर्ग की सुन्दरियाँ अान के मधुर- मदिर-शीतल वायु का उपभोग कर रही हैं । उस रात को मुझे नींद नहीं आई। मैं भट्टिनी को पहचान नहीं पा रहा हूँ। छोटे महाराज के विशाल अन्तःपुर में अावद्ध भट्टिनी का परिपाए -दुर्बल-कपोल-सुन्दर मुख में देख चुका हूँ । चण्डीमण्डप में कुमार कृष्णावधंन का आश्रय लेने से स्पष्ट इनकार करने के बाद वाणविद्ध मृग के समान उनकी करुण मुखच्छवि मैं भुलाने पर भी