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२०८
बाण भट्ट की आत्म-कथा

२०८ प्राण भट्ट की आत्म-कथा चरणो के भीतर एक परम मंगलमय देवता स्तब्ध है । उस देवता को नहीं देखने वाले ही यौवन को मत्त गजराज कहा करते हैं, अनु- राग को मानस अन्धकार बताया करते हैं, सहज भाव को , वकिम लीला का नाम दिया करते हैं । माधवी लता को घेर कर जब मधुकर-श्रेशी गुजार करती रहती है, तो मैं स्पष्ट ही पुरुषों के भीतर सौरभ के रूप में स्तब्ध उस महादेवता को देख पाता हूँ; नदी जब उन्मत्त वेग से अपने सर्वस्व को दोनों हाथों लुटाते हुए समुद्र की ओर दौड़ती रहती है, तो उस महारागमय देवता का मुझे साक्षात्कार होता है; मेघ के श्यामल-मेदुर वक्षःस्थल में क्षण-भर के लिए जब विभ्रमवती विद्युत् चमक कर छिप जाती है, तो उस समय भी मैं उस व्याकुल वेदना के देवता को देखना नहीं भूलता ।। अचानक पीछे से भट्टिनी की आवाज़ आई--‘भट्ट, दुर्बल शरीर लेकर रात-भर बाहर बैठना तो उचित नहीं है ।' मैंने प्रथम मेघगर्जन सुनने वाले मृग-शिशु की भाँति चौंक कर पीछे देखा । भइनी ही थीं --गुल्फ अाच्छादित नील आवर में से उनका मनोहर मुख सौगुना रमणीय दिखाई दे रहा था, मानो ज्योत्स्ना-रूप धवल मन्दी- किनी-धारा में बहते हुए शैवाल-जाज़ में उलझा हुआ प्रफुल्ल कमल हो, क्षीर सागर में सन्तरण करती हुई नीलवसना पद्मा हो, कैलाश पर्वत पर ग्विली हुई सपुष्पा दमनकयष्टि हो, नील मेघ-मण्डल में झल- कने वाली स्थिर सौदा'मनी हो ! उनकी बड़ी-बड़ी मनोहर आँखों की शोभा अपना उपमान श्राप ही थीं । मैं भट्टिनी के अचानक आगमन से क्षण-भर के लिए स्तब्ध रह गया। कुछ उत्तर नहीं सूझ पड़ा। केवल उस मृदुल-मनोहर दृष्टि की ओर मुग्ध-भाव से देखता रहा, जो इन्दोर की माना की भाँति मुझे बाँध रहीं थी, कस्तूरिका-लेप की भाँति मुझे स्निग्ध बना रही थी और मन्दारमाला की भाँति मेरे अन्तर और बाहर को श्रामोद-मन कर रही थी। भट्टिनी वहाँ क्षण-भर तक