पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/२२१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२१०
बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अाम-कथा निया ने जानुपातपूर्वक फिर से प्रणाम किया और थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद बोली- ‘कल रात को तुमने भट्टिनी को कुछ अनुचित कहा है, भट्ट १२ मैं सन्न रह गया । मैं भट्टिनी के अनुचित कह सकता हूँ ! निपुण का ने मुझे अधिक सोचने का अवसर नहीं दिया। मेरा कुतूहल और भी बढ़ाती हुई बोली----'मैं क्या नहीं जानती कि तुम जान-बूझ कर कभी अनुचित बात नहीं कह सकते १ देखी भट्ट, तुम नहीं जानते कि तुमने मेरे इस पाप-पंकिल शरीर में कैसा प्रफुल्ल शतदल खिला रखा है। तुम मेरे देवता हो, मैं तुम्हारा नाम जपने वाली अधम नारी हूँ। ऐसा कलुष मानस लेकर भी जो जी रही हूँ, सो केवल इसलिए कि तुमने जीने-योग्य समझा है । सूर्य पश्चिम दिग- विभाग में उदय हो सकता है; पर तुम भइनी को कोई अनुचित बात नहीं कह सकते, यह मैं जानती हूँ। फिर भी कोई ऐसी बात ज़रूर हुई है, जिससे भट्टिनी का चित्त उत्प्ति हो गया है । रात-भर वे रोती रही हैं। उनक) अखे सूज गई हैं। उनका मुख-मण्डले उत्तेजित है । वे अपने-आप में नहीं हैं। मुझे शंका हो रही हैं कि उन्हें तीव्र ज्वर हो गया है । तुम यदि उनके उच्छुक शोण अधरों को देखो, तो अवश्य रो पड़ोगे । क्या बात हुई है, भट्ट १' निपुणिका की बात सुन कर मैं इतप्रभ हो गया । ऐसा लगा कि मेरा सारा अन्तरतर शरत्कालीन केतक-पुष्प की तरह विवणं हो गया है। मैं उन्मत्त की भाँति बोल उठा---'निउनिया, अधिक न वह् । ते नहीं समझ सकती कि मेर ऊपर तू कैसा वज्र प्रहार कर रही है। निपुणिका अवाक होकर मेरी ओर देर तक ताकती रही । मैंने धीरे-धीरे रात की सारी कहानी उसे सुना दी । निपुणिका के शीर्ण चेहरे पर आनन्द की ज्योति दमक उठी। उसका श्वेत मुख-मण्डले कर्पर-गुटिका की भाँति जल उठा । उसकी भैंसी अखिों से इस प्रकार दिव्य ज्योति प्रकट होने लगी, जैसे विवरद्वार की नागमणि हो । वह