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बाण भट्ट की आत्म-कथा

वीण भट्ट की अस्मि-कथा २११ क्षण-भर के निस्पन्द-भाव से बैठी रही, मानो नाना दिशा से भाव-लहरियों से टकराकर बह गतिहीन हो गई हो। फिर उसने मेरी अर अाँख उठाई। मोतियों-भरे शुक्ति-पटल की भाँति, तुहिन बिन्दु से पूर्ण पद्म-पलाश की भाँति, शिशिर-सिक्त पारिजात-पुष्प की भाँति, अद्ध स्फुट सिन्दुवार-लता की भाँति वे अश्रु-भरी अाँखे चित्त की करुण- रस से प्लावित कर रही थीं, सहानुभूति की वर्षा से सींच रही थीं, अनुकम्पा की धारा से धौत कर रही थीं । नियुणिका देर तक भूली- सी, भ्रमी-सी,खोई-सी ताकती रही और फिर एकाएक भूमि-तत में करतल रखकर प्रणाम कर के बोली-“मैं समझ गई भट्ट, मेरा अपराधक्षम करी | तुम मेरा दोष नहीं समझ सकोगे ; परन्तु अपना दोघ तुम्हें समझना चाहिए । मैं अपनी बात के लिए लाजत हाने योग्य भी नह। हूँ । निउनिया की बात छोड़ो, वह बहत्तर घाट का पानी पी चुकी है, वह भले-बुरे को पहचानती है, अपने पहचानने की शक्ति पर भरोसा रखते हैं, अपने कलुष मानस के विकारों को दूसरे पर आरोप कर सकती हैं ; पर भट्टिन बालिका हैं । उन्हें संसार की कटुता का लेश- मात्र भी ज्ञान नहीं है। वे तुम्हें समझ नहीं सकतीं । धिक् भट्ट ! पुरुप में पौरुष होना चाहिए। तुमसे मैं पूछती हूँ कि तमने भट्टिनी से कभी पूछा क्यों नहीं कि वे गंगा में क्यों कूद पड़ीं ? तुमने कल उनके अस्वाभाविक तारत्य पर उन्हें कम के डाँट क्यों नहीं दिया ?? निपु- णिका की इन सारी बातों का कोई अर्थ मैं आज तक नहीं समझ सका हूँ ; पर मुझे अपनी स्थित समझा देने में इन शब्दों ने अाश्चर्य- जनक कार्य किया । मेधयुक्त प्रकाश की भाँति, कुज्झटिका-विरहित दिङमण्डल की भाँति और शैवालहीन सरोवर की भाँति मेरा चित्त प्रसन्न हो गया। मैंने निपुणिका को साधुवाद देते हुए कहा--नि- निया, मैं भट्टिनी का सेवक होकर गौरवान्वित हुशा हैं, अभिभावक होने की योग्यता मुझ में नहीं है। मैं उनको उनके पिता के पास