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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाणु भट्ट की आत्मकथा पहुँचाकर छुट्टो लुगा । मैं अधिक मोहग्रस्त होना पसन्द नहीं करता । तू भट्टिनी से कह दे कि वीण भट्ट महान् भविष्य का निमित्त बनने का संकल्प कर चुका है। वह कल ही स्थण्विीश्वर को रवाना हो जायगा ।' निपुणिका चली गई । वह इस प्रकार उदास थी, मानो लाभ की अाशा से व्यापार करने वाला वणिक मुल भी गंवा चुका हो ! मैं देर तक अपने आसन पर बैठा रहा। धीरे-धीरे सूर्य उत्तप्त हो उठे । अजगर के फूत्कार के समान पश्चिमी वायु सों-सों करती हुई दिक्चक्रवाल को दध करने लगी, तप के मारे कू कलास क्षण-क्षण पर रंग बदलने लगे, चटक-दम्पती अलस-भाव से हम्य-छिद्रों में छिपने लगे, वनसारिकाएँ नाना वचन-भंभियों से अपनी परिताप-कथा कहने लगीं और गृह्-धेनुअों के रोमन्थन-व्यस्त जबड़ों में भी आलस्य का आविर्भाव हुआ। मैं दीर्घ काल तक निर्निमेष-सा स्वस्तिकाकार राज- मार्ग के एक बहु की ओर एकटक देखता रहा। इसी समय विग्रहवर्मा ने अाकर प्रणाम किया और कुमार कृष्णवर्धन के भेजे हुए दूत से मेरा परिचय कराया । मेरे अाश्चर्य की उस समय कोई सीमा न रही, जब दूत ने बताया कि कुमार ने मुझ से अनुरोध किया है कि मैं महा- राजाधिराज हर्षदेव से वैर त्याग करू” और उनसे मिलू ! ' स्थावीश्वर जाना तै हो गया । मैंने अन्तिम बार भट्टिनी से विदा लेने का निश्चय किया । उस समय भगवान् मरीचिमाली अस्त हो चुके थे । पश्चिम-समुद्र के तीर से प्रवाल-लता की भाँति संध्याराग उदित हो गया था । विराट् सूर्यमण्डल के पश्चिमी समुद्र में पतित होने से जो छींट उछल पड़ीं थीं, वे ही नक्षत्रों के रूप में मानों अाकाश- मण्डल में सट गई थीं और शायद उसी समुद्र से उत्थित जल-धार ने बाद में निकटवर्ती पश्चिमी तट की लालिमा को धो डाला था। भट्टिनी स्नान करके पूजा-वेदी पर बैठी थीं । कुछ क्षण तक मैं बाहर खड़ा प्रतीक्षा करता रहा । अाज भदिनी ने भगवान् की स्तुति बड़े