पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/२२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२१४
बाण भट्ट की आत्म-कथा

२१४ बाणु भट्ट की आत्म-कथा विचित्र संयोग है ! और निपुण का क्या पागल हो गई है १ प्रातःकाल उसका आना, असंगत बातें करना, क्या उन्माद था ? भट्टिनी ने अधिक सोचने का अवसर नहीं दिया । बिना रुके ही बोलती गई ---- ‘लोरिकदेव की रानी ने अन्तःपुर में हम दोनों के लिए स्थान कर देना चाहा था ; पर मैं निपुणिका की अवस्था देखकर वहाँ रहना पसन्द नहीं करती। उन्होंने यह उचित व्यवस्था कर देने की आशा दिलाई है । विग्रहवर्मा को कह देना कि वे यहीं रहें। उनके रहते चिन्ता की कोई बात नहीं है । महावराह पर भरोसा रखो । कल चले जाओ ।' | मैंने चुपचाप सिर झुकाकर अाज्ञा शिरोधार्य की । परन्तु हृदय पर जैसे कहीं से अचानक शल्यपात हुआ । भट्टिनी को छोड़कर जाना पड़ेगा ! मैं जो समझ रहा था कि मेरा मन मोहमुक्त हो गया है, वह भ्रम था ! यदि भट्टिन की ओर से अनुमति न मिलती, तो शायद मैं ज्यादा निर्विकार हो सकता | कुछ देर चुप रहने के बाद भट्टनी ने मेरी ओर देखा । वर्षा-वारि से भीगे हुए खंजरीट-शव की भाँति वें अखि ऊपर नहीं उठ सकीं। शीघ्र ही वे फिर नीचे आ गई। भट्टिनी ने ज़रा रुक-रुककर कहना शुरू किया--भट्ट, मैं अभागिनी हूँ। तुमने ही मुझे जीने की सार्थकता सिखाई है । मैं नहीं जानती कि किस प्राकन पुण्य से महावराह ने तुम्हें मेरे पास भेज दिया था। तुम्हारे साथ रहकर मैं भूल गई थी कि मैं भाग्यहीना हूँ। मैंने तुम्हें बहुत कष्ट दिया है । और भी बहुत देती रहूँगी । मैं अबोध बाला हूँ। निपुण का ने आज उन्मत्त प्रलाप के भीतर से मुझे मेरा स्वरूप दिखा दिया है। कौन जाने, उसका कहना ठीक हो कि मैं तुम्हें गंगा में डुबाने के लिए स्वयं गंगा में कूद पड़ी थी। मैं नहीं कह सकती। मुझे क्षण-भर के लिए ऐसा मालूम हुआ था कि मौखरियों के उस निघृण महाराज ने मुझे फिर से कैद करना चाहा था । जब विग्रह-