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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्म-कथा २१५ वर्मा तुम से बता रहा था कि वह मौखरि है, तभी मुझे सन्देह हुआ। था । निर्बद्ध बालिका को क्षमा करना, भट्ट ! निपुण का कइ रही थी कि यदि भट्ट न होते, तो तुम गंगा में कभी ने कूदतीं। आज मैं सब बातें विचार कर देखती हैं, तो मुझे ऐसा लगता है कि मेरे मन के किसी अज्ञात कोने में यह भावना ज़रूर थी कि तुम मुझे डूबने नहीं दोगे--तुम मुझे बचा लोगे । तुमने मेर। शरीर,मन, लाज-शर्म सब- कुछ बचाया है। मैं भाग्यहीना अपने सबसे बड़े हिताकांक्षी को विपत्ति में झोंक देने की अपराधिनी हूँ। मेरा अपराध क्षमा करो, भट्ट !!---कहते-कहते भट्टनी ने हाथ जोड़कर भूमितल में सिर रखकर मुझे प्रणाम किया । मैं इस प्रकार जड़ हो गया था कि कहीं किसी प्रकार के संवेदन का लेशमात्र भी अनुभव नहीं कर पा रहा था। इतना बड़ा व्यापार मेरी आँखों के सामने देखते-देखते हो गया और मैं हूत संश, निश्चेष्ट बैठ रहा ! भट्टिनी को जानुपात की अवस्था में देखकर मुझे जैसे होश-सा हुअा। मैं तड़फड़ाकर उठ पड़ा । क्या कह रही हो, देवि ! निपुर्णिका ने उन्माद की अवस्था में जो-कुछ कहा है, उसी को प्रमाण मानकर मुझे अपराधी बना रही हो । भट्टिनी चुप रहीं । वे देर तक निस्पन्द दीपशिखा की भाँति, अचंचल विद्युल्लता की भति और प्रफुल्ल दमनकयष्टि की भाँति बैठी रहीं। फिर धीरे-धीरे कहाँ-वहाँ मे जल्दी ही लौटना । जाअो ।' मैं चला, तो भट्टिनी ने फिर पुकारा। इस उनका स्वर काफ़ी साफ़ था । बोलीं--- 'निपुणिका से मत मिलना । समय मिले, तो निपुणिका की सुखी सुचरिता की खबर लेते अन । वह उसके मकान के पास ही कहीं रहती है। वह अत्यन्त भाग्यहोना है। मैंने उसे सिर्फ एक बार देखा है। भूलना नहीं । प्रातःकाल मैं स्थाएवीश्वर के लिए रवाना हो गया। घोड़े की पीठ पर निरन्तर भागता हुश्रा दस दिन बाद स्थाएवीश्वर के दुर्ग-