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बाण भट्ट की आत्म-कथा

२१६ । बारा भट्ट की आत्मि-कथा द्वार पर उपस्थित हुआ । प्रवेश करते ही सुचरिता सबसे पहले याद आई । केवल एक बार नि पुग्किा ने उसके बारे में मुझसे चर्चा की थी । परन्तु जब मैंने उसकी पूरी कहानी पूछी, तो वह चुप हो गई थी । भट्टिनी से भी उसने उसकी चर्चा चलाई होगी। क्या करती है। वह १ कोई अच्छा काम नहीं करती, यह तो स्पष्ट है । तो भी वाण भट्ट उधर जायगा ज़रूर । जीवन उसने नारी-देह को पवित्र देव प्रतिमा समझा है । वह जहाँ भी हो और जिस अवस्था में भी हो, सम्मान और श्रद्धा की वस्तु है । यद्यपि आज मुझे महाराजाधिराज से मिलना है, प्राचार्य सुरातभद्र को प्रणाम करना और अवधूत अघोर भैरव का दर्शन पाना है, तो भी मैं सुचरिता को भूल नहीं सकता । अाज बाणु क्या देव-प्रतिमा को कीचड़ में धंस देख कर सिर्फ इसलिए कतरा जायगा कि उसे किसी सम्राट से या किसी महासंधिविग्रहिक से मिलने जाना है १ नहीं, यह नहीं होने का । परन्तु इतना तो होना ही चाहिए कि मेरे किसी अचरण से भट्टिनी के भावी मंगल का व्याधत न हो । जो हो, मैंने निश्चय किया कि कुमार, महाराज और अचा यंपाद से मिले विना कुछ नहीं करूंगा । उसी दिन वैशाखी पूर्णिमा थी। इसी दिन तथागत ने जन्म ग्रहण किया था और इसी दिन निर्वाण प्राप्त किया था। बौद्ध नरपति की राजधानी में आज उत्सव जैसा होना चाहिए, वैसा ही हुआ था । वीथियाँ सुगन्धि से सिक्त थीं, पौर-भवनों में मंगले-पताकाएँ सुशोभित हो रही थीं, राजमार्ग की और के सभी वातायन मालती-दाम से अलं- कृत हो रहे थे और पौरजन नवीन वस्त्र-भूषा से सुसज्जित थे । नगर में प्रवेश करते ही मुझे ज्ञात हुआ कि आज श्राचार्य सुगत भद्र की धर्म- देशना होने वाली है । सम्राट् और कुमार कृष्णवर्धन की सवारी उधर हो गई है। मैंने जब यह सुना, तो और सभी बातें भूले गई और प्राचार्यपाद की धर्म-देशना सुनने के लोभ से मैं उधर ही खिंच