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बाण भट्ट की आत्म-कथा

गया । विहार मेरा देखा हुआ था। राजमार्ग श्वेत वस्त्रधारी नागरिकों से पूर्ण था। उनके वस्त्र, उष, अंगराग शौर माल्य सभी श्वेत थे। ऐसा जान पड़ता था, सब लोगों ने रजत-धारा में स्नान किया हैं । ऊपर सौध-वातायनों में युवतियों के स्वर्णालंकारों की पीली प्रभ। व्याप्त हो रही थी । नोचे की श्वेतच्छाटा के ऊपर सौध-वातायनों को सोवणे- लुटा ऐसी मनोहर मालूम हो रही थी, मान कैलास पर्वत पर शरत्- कालीन प्रभातिक धूप फैली हुई हो । दुर्भाग्यवश जब मैं विहार तक पहुँचा, तब तक धर्म-देशना समाप्त हो चुकी थी । अब श्रोताओं की शंकाओं का समाधान किया जा रहा था। बाहर महाराजाधिराज के आगमन से जितना अानन्द-उल्लास, कोलाहल, जयनिनाद था, उससे मैंने अनुमान किया था कि भीतर भी भारी भीड़ होगी और उसी प्रकार का हल्ला-गुल्ला होगा । परन्तु यद्यपि विहार सब के लिए खुला था, फिर भी बहुत थोड़े लोग भीतर जाने का साहस कर रहे थे । सभास्थल में भिक्षुअों का ही अधिक्य था । गृहस्थों में स्वयं महाराज और उनके कई निकटवर्ती पदाधिकारी समासीन थे। महाराज के शरीर पर कोई उत्तरीय भी नहीं था । सारा शरीर सौगंधिक अंगराग से उपलिप्त था और भुजमूल में केयूर और हृदय में एक मौक्तिक हार के सिवा और कोई भी अलंकार उन्होंने नहीं धारण किया था। वे बहुत शान्त-मनोरम दिखाई दे रहे थे । प्राचार्य के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा थी, और आचार्य भी अत्यन्त स्नेहपूर्वक उनकी ओर देख रहे थे । सब मिला कर वहाँ अर्द्ध-सहस्र व्यक्ति बैठे हुए थे । आधे तो भिक्षु थे और आधे में महाराजाधिराज के सामन्त तथा अन्त:पुर की देवियाँ थीं । एक महीन तिरस्करिणी ( पद ) के पीछे देवियों का श्रासन था। मैं चुपचाप एक और बैठ गया। प्राचार्य सुरातभद्र बहुत प्रसन्न जान पड़ते थे। उन्होंने मन्द स्मितपूर्वक महाराज की ओर देखा और